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पढमो भवो]
कालंजणियाभिहाणाए भारियाए कुच्छिसि इत्थिगत्ताए' उवव िहि ति। जाया समाणी कमेण संपत्तजोव्वणा । दिन्ना य ऊसदिन्नेण ऊसरक्खियाभिहाणस्स अच्चतदारिद्दाभिभूयस्स । इत्थिया कयपाणिग्गहणा आवन्नसत्ता होऊण पसूइसमए चेव महावेदणाहिभूया कालं काऊण सजणणीए चेव उत्तत्ताए उववज्जिहि त्ति । समुप्पन्नो' यसो बालभावे चेव गंधारनिन्नगातोरम्मि खेल्लमाणो ऊसदिन्नसत्तणा चिलायनामेण 'रिउपुत्तो' ति गिहिऊण सिरोहरानिबद्धगरुयसिलायलो दहम्मि परिक्खिप्पहिइ । एयपज्जवसाणमेयं नियाणं । भविओ य एओ सिद्धिगामी य केवलमसंपत्त बीओ त्ति।
तओ मए भणियं-भयवं! हि पणो सो जलमरणाणं रं उववज्जिहिइ ति? कया वा वीयसंपत्ती मुत्तिसंपत्ति य भविस्सइ ? भगव्या भणियंसुण, जलमरणातरं वाणमंतरेसु उववज्जिहि ति । तओ तम्मि चेव जम्मे आणंदतित्थयर समीवे सासयसुहकप्पपायवेकबीयं सम्मत्तं पाविहिइ। तओ चउगइसमावन्नो संखेज्जेसु समइथिएसु भवग्गहणेसु इहेव गंधारजणवए पाविऊण नरवइत्तणं, अमरतेयविज्जाहरसमणगणिसमीवे पवज्जिऊण पव्वज्ज संपत्तकेवलो मुत्ति पाविसइ ति। तओ ममेयं सोऊण तया उत्पत्स्यत इति । जाता सती क्रमेण सम्प्राप्तयौवना । दत्ता च पुष्यदत्तेन पुण्यरक्षिताभिधानस्य अत्यन्तदारिद्र याभिभूतस्य । स्त्री कृतपाणिग्रहणा आपन्नसत्त्वा भूत्वा प्रसूतिसमये एव महावेदनाऽभिभूतकालं कृत्वा स्वजनन्या एव पुत्रतया उत्पत्स्यत इति । उपपन्नश्च स बालभावे एव गान्धारनिम्नगातीरे खेलन् पुष्यदत्तशत्रुणा चिलात (किरात)-माम्ना 'रिपुपुत्रः' इति गृहीतशिरोधरा निबद्धगुरुकशिलातलः द्रहे परिक्षेपयिष्यते । एतत्पर्यवसानमेतद् निदानम् । भव्यश्च एष सिद्धिगामी च, केवलम्-असम्प्राप्तबीजः-असम्यक्त्व इति ।
ततो मया भणितम-भगवन् ! कुत्र पुनः स जलमरणानन्तरम् उपपत्स्यते ? इति, कदा व बीज (सम्यक्त्व) सम्प्राप्तिः, मुक्तिसम्प्राप्तिश्च भविष्यति ? भगवता भणितम्-शृणु, जलमरणानन्तरं वानव्यन्तरेष उपपत्स्यते इति । ततः तस्मिन एव जन्मनि आनन्दतीर्थंकरसमीपे शाश्वतसखकल्पपादपैकबीजं सम्यक्त्वं प्राप्स्यति । तत: चतुर्गतिसमापन्नः संख्येयेषु समतिगतेषु भवग्रहणेषु, इहैव गान्धारजनपदे प्राप्य नरपतित्वम्, अमरतेजोविद्याधरश्रमणगणिसमीपे प्रपद्य प्रव्रज्याम् सम्प्राप्तकेवल: मुक्ति के गर्भ में कन्या के रूप में उत्पन्न होगी । उत्पन्न होकर क्रम से यौवनावस्था को प्राप्त होगी । पुष्यदत्त उसे पुष्यरक्षित नामक अत्यन्त निर्धन पुरुष को देगा। पाणिग्रहण के बाद गर्भवती होकर, तीव्र बेदना से अभिभूत हो मत्य को प्राप्त कर, अपनी माता के ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होगी। उत्पन्न होकर बाल्यावस्था में गान्धार नदी के किनारे खेलता हुआ वह पुन: पुष्यदत्त के चिलात (किरात) नामक शत्रु द्वारा 'शत्रु का पुत्र है' ऐसा मानकर गर्दन पकड़कर, बहुत बड़ी शिला बांधकर तालाब में फेंक दिया जायेगा। इसके निदान की यह समाप्ति है । यह भव्य और मोक्षगामी है । साथ ही असम्प्राप्त-बीज और असम्यक्त्वी है।"
तब मैंने कहा, "भगवन् ! यह जल से मरण के बाद कहाँ उत्पन्न होगा? अथवा सम्यक्त्व रूपी बीज की प्राप्ति कब होगी? और कब मक्ति प्राप्त करेगा?" भगवान ने कहा, "सुनो, जल से मरण होने के बाद वानव्यन्तरों (देवविशेषों) में उत्पन्न होगा । तब उसी जन्म में आनन्द तीर्थंकर के समीप शाश्वत सुख रूप कल्पवृक्ष के एकमात्र बीज सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। तब चारों गतियों में संख्यात भव ग्रहण कर इसी गान्धार जनपद में राजा होगा और अमरतेज नामक उत्तम मूनि के समीप दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त करेगा।" यह १. इत्यित्ताए, २, उववन्नो , ३. एसो, ४. समइच्छिएसु ।
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