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पढनो भयो] भयवं विजयसेणायरिओ त्ति चितिऊण ठिओ विवित्तदेसम्मि सव्वराइयं पडिमं ।
इओ य सो अग्गिसम्मतावसो अपडिक्कतो चेव तन्नियाणाओ कालं काऊण विज्जुकुमारेसु दिषड्ढपलिओवमट्टिई देवो जाओ त्ति । दिन्नो य तेण उवओगो 'किं मए हुयं वा, जट्ठवा, दाणं वा दिन्नं, जेण मए एसा दिवा देवड्ढी पत्त ति। आभोइओ य णेण पुत्वजम्मवुतंतो, कुविओ य उरि गुणसेगस्स। विहंगेगाहोइऊण आगओ तस्स समीवं । दिट्ठो य ण पडिमं ठिओ गुणसेणो। तओ य - .
पडिमं ठियस्स तेणं विउविया कोहमूढहियएण। निरयाणलजलियसिहा (निहा) अइघोरा पंसुवुद्धित्ति ॥३॥ तीए य उज्झमाणो अणाउलं गरुयसतसंपन्नो। चितेइ भावियमणो धम्मम्मि जिणप्पणीयम्मि ॥८४॥ सारीरमाणसेहिं दुखेंहि अभिदुयम्मि संसारे।
सुलहमिणं जं दुक्खं दुलहा सद्धम्मपडिवत्ती ॥५॥ विजयसेनाचार्य' इति चिन्तयित्वा स्थितो विविक्तदेशे सर्वरात्रिकी प्रतिमाम् ।
__इतश्च स अग्निशर्मतापसः अप्रतिकान्त एव तन्निदानात् कालं कृत्वा विद्यत्कूमारेष द्वयर्घपल्योपमस्थितिर्देवो जात इति । दत्तश्च तेन उपयोग: 'कि मया हुतं वा, इष्टं वा, दानं वा दत्तम येन मया एषा दिव्या देवधि: प्राप्ता' इति । आभोगितश्च तेन पूर्वजन्मवृत्तान्तः कुपितश्च उपरि गणसेनस्य । विभङ्गेन आभोग्य आगतस्तस्य समोपम् । दृष्टश्च तेन प्रतिमां स्थितः गणसेनः । ततश्च
प्रतिमां स्थितस्य तेन विकुर्विता क्रोधमूढहृदयेन । निरयानल-ज्वलितशिखा (निभा) अतिघोरा पांशुवृष्टिरिति ।।३।। तया च दह्यमानोऽनाकुलं गुरुकसत्त्वसम्पन्नः ।। चिन्तयति भावितमना धर्मे जिनधर्मप्रणीते ।।४।। शारीरमानसैर्दुःखैः अभिद्रुते संसारे।
सुलभमिदं यत् दुःखं दुर्लभा सद्धर्मप्रतिपत्तिः ॥८॥ यहाँ से, जहाँ भगवान् विजयसेनाचार्य हैं वहां जाऊंगा, ऐसा विचारकर एकान्त स्थान में रात भर प्रतिमायोग से स्थित रहा।
इधर वह अग्निशर्मा तापस उस निदान से मरकर विद्युत्कुमारों में ढाई पल्य की स्थिति बाला देव हुआ। उसने ध्यान लगाया, क्या मैंने होम किया, यज्ञ किया अथवा दान किया, जिससे मैंने यह देवों का वैभव पाया ! उसने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जाना और वह गुणसेन पर क्रोधित हुआ। विभंगावधि से जानकर उनके समीप आया। उसने प्रतिमायोग से स्थित गुणसेन को देखा । तदनन्तर
प्रतिमायोग से स्थित उन पर क्रोध से मूढहृदयवाले अग्निशर्मा तापस के जीव ने विक्रिया कर नरकाग्नि के तल्य लपटों के समान अत्यन्त कठोर धलि की वर्षा की। उससे जलते हुए, आकुलतारहित, अत्यन्त बलवान राजा ने जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत धर्म में चित्त लगाकर विचार किया-- शारीरिक और मानसिक दुःखों से परिपूर्ण जगत् में दुःख सुलभ है और सच्चे धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है । ।।८३-८५।।
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