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[ समराइच्चकहा
आवश्यकता को समझाया है । वैराग्य की ओर ले जाते हुए वे एक बहुत बड़े दार्शनिक, चिन्तक और सन्त के रूप में दिखलाई देते हैं ।
हरिभद्र की यह विशेषता है कि उन्होंने प्राचीन कथानकों को बड़ा रोचक बनाकर चमत्कृत कर दिया है । भावों के चित्रण में उनकी कल्पना ने सजीवता भर दी है । कथानक के निर्माण, चरित्र-चित्रण एवं भाषा-शैली में नवीनता दृष्टिगोचर होती है । मधुर, कोमल तथा सुकुमार भावों की अभिव्यंजना में हरिभद्र अद्वितीय हैं। उनकी रचना में ऐसा मनोहर वर्णविन्यास है, ऐसा मधुर संगीत तथा नाद सौन्दर्य भरा रहता है कि पाठक तथा श्रोता दोनों मुग्ध हो जाते हैं । शृंगार रस का चित्रण करते समय वे उस रस के आचार्य प्रतीत होते हैं । शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों के बड़े मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्र समराइच्चकहा में प्राप्त होते हैं । द्वितीय भव में राजकुमार सिंह और कुसुमावली के मिलन का प्रथम दृश्य देखिए -
"चितियमिमोए - - - कहं कीला संदरुज्जाणस्स रम्मयाए भयवं मयरद्धओ वि एत्थेव कीलासुहमणहवइति । एत्थंतरस्मि भणिया पियंकराभिहाणाए चेडीए - सामिणि, अलं अलमोसक्कणेण; एसो खुराणो पुरिसदत्तस्स पुत्तो तुह चैव पिउच्छा गन्भसंभवो सोहो नाम कुमारो त्ति 'पढमागमणकयपरिग्गहं च सामिणि एवमोसक्क माणि पेच्छिय मा अदक्खिण्णं तं संभाविस इ । ता चिट्ठियउ इहं, कीर इमस्स महाणुभावस्स रायकन्नोचिओ उवयारो । तो हरिसवसपुलइयंगीए सविब्भमं साहि लासं च अवलोइऊण कुमारं भणियं इमीए । हला पियंकरिए, तुमं चेवsत्थ कुसला, ता निवेएहि कि मए एयस कायव्वं ति । तीए भणियं - सामिणि; पढमागयाओ अम्हे ता अलंकरावीयउ आसणपरिग्गणं इमं पएसं कोरउ से सज्जणजणाण संबंधपायवबीयभूयं सागयं दिज्जउ से सहत्थेण कालोचियं वसंतकुसुमाभरणसणाहं तम्बोलं ति । कुसुमावलीए भणियं -- हला; न सक्कुणोमि अइसज्झसेण इमं एयरस काउं; ता तुमं चेव एत्थ कालोचियं करेहि ति । एत्थंतरम्मि य पत्तो समुद्देसं कुमारो । तओ सज्जिऊणासणं; भणिओ पियंकरीए । सागयं रइविरहियस्व कुसुमचावस्स; इह उवविसउ महाणुभावो । तओ सो सपरिओसं इति विहसिऊण 'आसि य अहं एत्तियं कालं रइविरहिओ, न उण संपयं', ति भणिऊणमवविट्टो ।" (समराइच्चकहा, वीओ भवो -- पू० ८०-८१ श्रृंगार रस के वियोगपक्ष का एक वर्णन द्रष्टव्य है; जिसमें सिंह राजकुमार के विरह में व्यथित राजकुमारी कुसुमावली का चित्रण इन शब्दों में किया गया है-
"अह सेविडं पयता सेज्जं अणवरयमुक्कनीसासा | मयणसरसल्लियमणा नियकज्जनियत्तवावारा ॥ नालिes चित्तकम्म न चांगरायं करेइ करणिज्जं । नाहिलes आहारं अहिणंवद नेय नियभवणं ॥ चिरपरिचियं पि पाढेइ नेय सुयसारियाण संघायं । कीलाइ मणहरे चडुले न य भवकलहंसे || विहरइ न हम्मियतले मज्जइ न य गेहदी हियाए उ । सारेइ नेय वीणं पत्तच्छेज्जं पि न करेइ ॥ नय कंबुएण कोलइ बहुमन्नइ नेय भूसणकलावं । हरिणि व जूहभट्ठा अणुसरमाणी तयं चेव || खणरुद्धनयणपसरा अवसा धरियदहनीसासा । roadहट्ठा
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खणजं विश्वायमुहकमला ॥" - समराइच्च कहा – १२१-१२६ ॥
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