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[ समराइच्चकहा
भयवं ! जइ एवं ता सुणसु । एस अग्गिसम्मतावसो पढमं चेव मम मंदपुष्णस्स, असमिक्खिभयकारणो, असरिसजणसरिसायरणनिरयस्स संबंधिणा निव्वेएण तावसो संवृत्तो । एयस्स पवन्नुत्तमवयस्स वि तं म असरिसजणायरणं न परिचत्तं ति दढमुव्विग्गो म्हि । कुलवइणा भणियं वच्छ ! जइ एवं, ता अलं संतप्पिएणं, किं कारणं । जइ तुह संबंधिणा कारणेण तावसो संवृत्तो, ता तुमं चेव इमस्स धम्मपवत्तगो कल्ला मित्तो त्ति ; किमुव्विग्गो सि ? न यावि एहिं तुह परलोय भीरुणो, अहिगयधम्मसत्थस्स किंपि असज्जणायरणं संभावेमि । किं वा से कयमियाणि निवेएहि मे ।
राइणा भणियं - भयवं ! इयाणिं ताव एवं उयणिमंतिऊण मासपारणयपविटुस्स सोसवेयणाभिभूएण पमायओ अणिउत्तपरियणेणं आहारंतरायकरणेणं कथं से धम्मन्तरायं ति । कुलवणा भणियं वच्छ ! जं किंचि एयं, न तुमं एत्थ अवरज्झसि । न तिव्ववेयणाभिभूया पुरिसा कज्जमक्कज्जं वा वियाणंति । न य तस्स आहारंत रायकरणेणं धम्मन्तरायं हवइ, अवि य तवसंपया । ता अलमुवेगेणं ति । राइणा भणियं - भयवं ! जाव तेण महाणुभावेण सम गेहे आहारगहणं न प्रथममेव मम मन्दपुण्यस्य, असमीक्षितकारिण: असदृशजनसदृशाचरणनिरतस्म्बन्ध तापसः संवृत्तः । एतस्य प्रपन्नोत्तमव्रतस्याऽपि तद् मया असदृशजनाचरणं न परित्यक्तमिति दृढम् उद्विग्नोऽस्मि । कुलपतिना भणितम् - वत्स ! यद्येवम्, ततोऽलं सन्तप्तेन, किं कारणं । यदि तव सम्बन्धिना कारन तापसः संवृत्तः ततस्त्वमेव अस्य धर्मप्रवर्तकः कल्याणमित्रम् - इति किम् उद्विग्नोऽसि ? न चाऽपि इदानीं तव परलोक भीरोः, अधिगतधर्मशास्त्रस्य किमपि असज्जनाचरणं संभावयामि । किं वा तत् कृतमिदानीं निवेदय मे ।
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राज्ञा भणितम् - भगवन् । इदानीं तावद् एतम् उपनिमन्त्र्य मासपारणक- प्रविष्टस्य शीर्षवेदनाभिभूतेन प्रमादतोऽनियुक्तपरिजनेन आहारान्तरायकरणेन कृतस्तस्य धर्मान्तराय इति । पति भणितम् - वत्स ! यत् किंचिद् एतत् न त्वं अत्र अपराध्यसि । न तीव्रवेदनाभिभूताः पुरुषाः कार्यमकार्य वा विजानन्ति । न च तस्य आहारान्तरायकरणेन धर्मान्तरायो भवति, अपि च तपः संपदा । ततोऽलम् उद्वेगेनेति । राज्ञा भणितम् - भगवन् ! यावत् तेन महानुभावेन मम गेहे जिससे कि वृत्तान्त को जानकर किसी उपाय से उस उद्वेग को दूर कर सकें।" राजा ने कहा, “भगवन् ! यदि ऐसा है तो सुनो ! यह अग्निशर्मा तापस पहले हो मन्द पुण्यवाले, बिना विचारे कार्य करनेवाले, प्रतिकूल व्यक्ति के समान आचरण करनेवाले मुझसे विरक्त होकर तापस हो गये । इनके उत्तम व्रत को प्राप्त हो जाने पर भी मैंने प्रतिकूल व्यक्तियों के समान आचरण का परित्याग नहीं किया, अतः उद्विग्न हूँ।” कुलपति ने कहा, “वत्स ! यदि ऐसा है तो दुःखी मत होओ, दुःखी होने का कारण ही क्या है | यदि आपके सम्बन्ध के कारण यह तापसी हुए तो आप इनके धर्मप्रवर्तक तथा कल्याणकारी मित्र हो, अतः उद्विग्न क्यों होते हो ? इस समय परलोक से डरने वाले एवं समस्त धर्मशास्त्रों के वेत्ता आपसे मुझे दुष्टजनोचित आचरण की सम्भावना नहीं है । अतः इस समय क्या किया जाय, यह मुझसे निवेदन करो। "
राजा ने कहा, "भगवन्, उनका निमन्त्रण कर, मास भर बाद आहार के लिए प्रविष्ट होने पर शिरोवेदना से अभिभूत हो प्रमाद के कारण सेवकों की नियुक्ति न कर पाने से, उनके आहार में अन्तराय करने के कारण इस समय मैंने उनके धर्माचरण में विघ्न डाला ।" कुलपति ने कहा, "वत्स ! इसमें कोई बात नहीं, यहाँ पर तुम्हारा अपराध नहीं है; क्योंकि वेदना से अभिभूत पुरुष कार्य अथवा अकार्य को नहीं जान पाते हैं । आहार में अन्तराय करने से धर्म में अन्तराय नहीं होता है, अपितु तप रूप सम्पत्ति की प्राप्ति होती है । अतः उद्विग्न न ह्नों।" राजा ने कहा, "भगवन् ! जब तक वे महानुभाव मेरे घर पर आहार नहीं लेते हैं तब तक उद्वेग कैसे
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