________________
पढमो भवो]
इय काऊण नियाणं अप्पडिकतेण तस्स ठाणस्स ।
अह भावियं सुबहुसो कोहाणलजलियचित्तेण ॥६१॥ एत्थंतरम्मि पत्तो एसो तवोवणं । अणेय वियप्पजणियकुचितासंधुक्कियपवड्ढमाणकोहाणलो य कुलवई सेसतावसे य परिहरिऊण अलक्खिओ चेव गओ सहयारवीहियं, उवविट्टो य विमलसिलाविणिम्मए चाउरंतपोढे ति। अणुसयवसेण पुणो वि चितिउमारद्धो। अहो ! से राइणो ममोवरि परिणीयभावो। कहं सव्वतावसमझे अहं से ओहसणिज्जो त्ति? जेण मे पइन्नाविसेसं नाऊणं नियडिबहुलो तहा तहोवणिमंतिय असंपाडणेण पारणयस्स किल मं खली करेइ ति।
तं मूढो खु सो राया कि मे एयावत्थगयस्स खलीकरीयइ। तहा अणाहाणं, दुब्बलाणं, परपरिहयाणं च सत्ताणं कयंतणेव विणिवाइयाणं जा खलियारणा, न सा मणिणो माणमापूरेइ ति, विसेसओ सनसत्तमित्ताणं परलोयवावारनिरयाणं तवस्सोणं ति । अहवा अपरिचत्ताहारमेत्तसंगस्स मे एतहमेत्ता कयस्थण ति। ता अलं मे जावज्जीवं चेव परिहवनिमित्तणं' आहारेणं ति । गाहियं जावज्जीवियं
इति कृत्वा निदानम् अप्रतिकान्तेन तस्य स्थानस्य ।
अथ भावितं सुबहुशः क्रोधानलज्वलितचित्तेन ॥६१॥ । ___ अत्रान्तरे प्राप्त एष तपोवनम्, अनेकविकल्पजनितकुचिन्तासन्दीप्तप्रवर्धमानक्रोधानलश्च कलपतिम्, शेषतापसांश्च परिहृत्य अलक्षित एव गतः सहकारवीथिकाम्, उपविष्टश्च विमलशिलाविनिमिते चतुरन्तपीठे इति । अनुशयवशेन पुनरपि चिन्तयितुमारब्धः-अहो ! तस्य राज्ञो ममोपरि प्रत्यनीकभावः । कथं सर्वतापसमध्ये अहं तस्य उपहसनीय इति ? येन मम प्रतिज्ञाविशेषं ज्ञात्वा निकृतिबहुलः तथा-तथा उपनिमन्त्र्य असम्पादनेन पारणकस्य किल मां खलीकरोति इति ।
तद्-मूढः खल स राजा किं मम एतदवस्था-गतस्य खलीकरोति । तथा अनाथानाम्, दुर्बला. नाम, परपरिभूतानां च सत्त्वानां कृतान्तेनेव विनिपातितानां या खलीकारणा, न सा मानिनो मानमापूरयति इति, विशेषतः समशत्रु-मित्राणां परलोकव्यापारनिरतानां तपस्विनामिति । अथवा अपरित्यक्ताहारमात्रसंगस्य मम एतावन्मात्रा कदर्थनेति, ततोऽलं मम यावज्जीवमेव परिभवनिमिक्रोधरूपी अग्नि से जले हुए चित्त से भावना की ।।५७-६१॥ .
इसी बीच यह तपोवन में आ गया। अनेक विकल्पों से उत्पन्न दुश्चिन्ता से जिसकी क्रोधाग्नि बढ़ गयी है ऐसा वह तापस कुलपति तथा अन्य सभी तपस्वियों को छोड़कर, बिना दीखे ही आम्रवीथी में गया। वह उत्तम शिला से निर्मित चौकोर पीठे पर बैठ गया । अत्यधिक क्रोधवश उसने पुनः सोचना आरम्भ किया-'उस राजा का मेरे ऊपर विपरीत भाव आश्चर्यजनक है ! समस्त तापसियों के बीच मैं कैसे उपहास का पात्र बनाया गया, जो कि मेरी प्रतिज्ञाविशेष को जानकर कपटवश उस प्रकार से निमन्त्रित कर मुझे आहार न कराकर दुःखी करता रहा है।
वह मूढ़ राजा इस अवस्था को प्राप्त हुए मुझे क्यों दुःख पहुंचाता रहा है ? अनाथ, दुर्बल, दूसरों के द्वारा सताये गये, मानो यम के द्वारा ही अधोगति पहुँचाये हुए प्राणियों को दुःख पहुँचाना मानी व्यक्ति के मान को पूरा नहीं करता है। विशेषकर जो शत्रु-मित्र दोनों में समानभाव रखने वाले हैं और परलोक के प्रति किये गये कार्यों में रत है ऐसे तपस्विजनों का अपमान तो मानी व्यक्ति के मान को पूरा कर ही नहीं सकता। अथवा एकमात्र १, मेत्तेणं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org