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पढमो भवो ]
तओ एक्केणं साणुक्कोसेणं च बालतावासकुमारेणं अणुगच्छिउण थेवभूमिभायं निवेइओ से अग्गिसम्माभिप्पाओ ति, तओ राइणा चितियं-किमिह पुणागमणेणं ? जइ परं कुलवई आयासे पाडिज्जइ । ता न जुत्तं ममेह नयरे वि चिट्ठिउं, मा से महाणुभावस्त तस्स असोयव्वं पि अवरं सुणिस्सं ति । एवं चिंतयंतो पत्तो वसंतउरं। पुच्छिया गेणं संवच्छरिया 'कया अम्हाण खिइपइट्ठियगमणदियहो । परिसुज्झइ ति ? तेहिं च निच्च तक्कम्मवावडत्तणणोवलद्धसोहणदिणेहि विन्नत्तं—'महाराय ! कल्लं चैव परिसुज्झइ' त्ति । तओ राइणा समाणत्तो परियणो 'पयट्टहं लहुं कल्लं ति तओ बिइयदियहे महया चडयरेण निग्गओ राया। अणवरयपयाणएहिं च पत्तो मासमेत्तण कालेण खिइपइठ्ठयं । तओ ऊसियविचित्तके उनिवहं, विविहकयट्टसोह, सोहियत पुप्फोवयाररायमग्गं, धवलियपासायमालोवसोहियं, महाविभूईए पविट्ठो नयरं, तत्थ वि य तोरणमिम्मियवंदणमालं, सविसेससंपाइयमहोवयारं सव्वओभई नाम पासायं ।
तत्थ य तम्मि चेव दियहे आगओ मासकप्पविहारेण अहासंजमं विहरंतो सीसगणसंपुरिवुडो
तत एकेन सानुक्रोशेन च बालतापसकुमारेण अनुगम्य स्तोकभूमिभागं निवेदितस्तस्य अग्निशर्माभिप्राय इति। ततो राज्ञा चिन्तितम्-किमिह पुनरागमनेन ? यदि परं कुलपतिः आयासे पात्यते । ततो न युक्तं मम इह नगरे अपि स्थातुम्, अथ मा महानुभावस्य तस्य अश्रोतव्यमपि अपरं श्रोष्यामि इति एवं चिन्तयन प्राप्तो वसन्तपरम। पष्टाश्च तेन सांवत्सरिकाः 'कदा अस्माकं क्षितिप्रतिष्ठितगमनदिवसः परिशुध्यति इति ? तैश्च नित्यं तत्कर्मव्यापतत्वेन उपलब्धशोभनदिनः विज्ञप्तम् ----'महाराज ! कल्यमेव परिशुध्यति' इति । ततो राज्ञा समाज्ञप्तः परिजनः 'प्रवर्तध्वं लघुकल्यम्' इति । ततो द्वितीयदिवसे महता चटकरेण निर्गतो राजा। अनवरत प्रयाणैश्च प्राप्तो मासमात्रेण कालेन क्षितिप्रतिष्ठितम् । तत उच्छितविचित्रकेतुनिवहम्, विविधकृतहट्टशोभम्, शोभितसपुष्पोपचारराजमार्गम्, धवलितप्रासादमालोपशोभितम्, महीविभूत्या प्रविष्टो नगरम् । तत्रापि च तोरणनिर्मितवन्दनमालम्, सविशेषसम्पादितमहोपचारम्, सर्वतोभद्रं नाम प्रासादम्।।
तत्र च तस्मिश्चैव दिवसे आगतः मासकल्पविहारेण यथासंयम विहरन् शिष्यगणसम्परिवृतः
तब एक बालक तपस्वीकुमार ने दयायुक्त होकर, थोड़ी दूर आकर अग्निशर्मा का अभिप्राय निवेदन किया। अनन्तर राजा ने विचार किया-यहाँ पुनः आने से क्या लाभ ? यदि कुलपति भी विपत्ति में पड़ते हों। अब मेरा इस नगर में रहना ठीक नहीं । उन महानुभाव के विषय में कुछ न सुनने योग्य बात सुनने को न मिले । इस प्रकार विचार करते हुए वह राजा वसन्तपुर आया। उसने ज्योतिषियों से पूछा, "हमारा क्षितिप्रतिष्ठित नगर जाने का दिन कब शोधित होता है !" नित्य ही उस कार्य में लगे हुए उन ज्योतिषियों ने शुभ दिन प्राप्त कर राजा से निवेदन किया, "महाराज ! कल ही (अच्छा दिन) शोभित होता है।" तब राजा ने सेवकों आदि को आज्ञा दी, "कल शीघ्र ही चल देंगे।" तब दूसरे दिन बड़े समूह के साथ राजा निकला । निरन्तर एक मास गमन करते हुए क्षितिप्रतिष्ठित नगर पहुँचा। तब महान् विभूति से नगर में प्रविष्ट हुआ । उस समय नाना प्रकार की ध्वजाओं का समूह फहरा रहा था, तरह-तरह से बाजार की शोभा की गयी थी, फूलों से सड़क सजायी गयी थी तथा वह धवल प्रासादों की पंक्तियों से शोभित था। उस नगर में भी जहाँ तोरणों पर वन्दनमालाएँ लगायी गयी थीं तथा विशेष रूप से बड़ी सजावट की गयी थी, ऐसे सर्वतोभद्र नामक प्रासाद में पहुंचे।
वहाँ पर उसी दिन विजयसेन नामक आचार्य आये थे। वे एक मास विहार करने का नियम लिये हुए,
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