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[ समराइन्धकहा सव्वं' पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं ।
अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होई ॥६२॥ एयमणुसासिऊणं पडियारगे तावसे निरूविय गओ कुलवई। इओ य राइणा गुणसेणेणं तहा आयलच्छणसोक्खमणुहवंते परियणे अइक्कंताए पारणगबेलाए सुमरियं, जहा पारणय दिवसो खु अज्ज तस्स महातवस्सिस्स । अहो मे अहन्नया, न संपन्नं चेव महातवरिस्सस्स पारणयं ति तक्के मि । पुच्छिओ य ण जहासन्निहिओ परियणो। किं सो महाणुभावो तावसो अज्ज इहागओ न व ति? तओ तेण निउणं गवेसिऊणं निवेइयं -देव ! आगओ आसि, किं तु देवीपुत्तजम्मब्भुययाहिणं दिए अइपमत्ते परियणे न केणइ उवचरिओ त्ति, तओ लहुं चेव निग्गओ।
राइणा भणियं-अहो मे पावपरिणई। तस्स महातवस्सिस्स धम्मंतरायकरणेणं देवीपुत्तजम्मब्भययं पि आवयं चेव समत्थेमि। सव्वहा न मंदपुण्णाणं गेहेसु वसुहारा पडंति। न य पमाय"दोससिओ अहं उदंतनिमित्तं पि से पारेमि मुहमवलोइउं। ता गच्छ, भो सोमदेवपुरोहिय ! ममा
सर्व पूर्वकृतानां कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकम् ।
अपराधेषु गुणेषु च निमित्तमात्रं परो भवति ॥६२॥ एवमनुशास्य प्रतिचारकान् तापसान् निरूप्य गतः कुलपतिः । इतश्च राज्ञा गुणसेनेन तथा अकालजन सौख्यमनुभवति परिजने अतिक्रान्ताया पारणकवेलायां स्मृतम्, यथा पारणकदिवसः खलु अद्य तस्य महातपस्विनः । अहो ! मम अधन्यता, न सम्पन्नमेव महातपस्विनः पारणकमिति तर्कयामि । पष्टश्चाऽनेन यथा सन्निहितः परिजन:-किं स महानुभावः तापसः अद्य इह आगतो न वा इति ? ततस्तेन निपुणं गवेषयित्वा निवेदितम्-देव ! आगत आसीत्, किन्तु देवीपुत्रजन्माभ्युदयाभिनन्दिते अतिप्रमत्ते परिजने न केनचिद् उपचरति इति, ततो लघ्वेव निर्गतः।
राज्ञा-भणितम्-अहो ! मम पाप परिणतिः । तस्य महातपस्विनो धर्मान्तरायकरणेन देवीपुत्रजन्माभ्युदयमपि आपदं चैव समर्थयामि । सर्वथा न मन्दपुण्यानां गेहेषु वसुधारा: पतन्ति । न च प्रमाददोषषितः अहम्-उदन्तनिमित्तमपि तस्य पारयामि मुखमवलोकितुम्, अतो गच्छ भोः सोम
सभी लोग अपने पहले किये हुए कर्मों का फल प्राप्त करते हैं । अपराधों में और गुणों में दूसरा व्यक्ति तो केवल निमित्तमात्र होता है।" ॥६२॥
___ इस प्रकार शिक्षा देकर और परिचर्या करनेवाले तापसों को निरूपित कर कुलपति चले गये । इधर राजा गूगसेन को, भोजन का समय बीत जाने पर जबकि परिजन असामयिक उत्सव के सुख का अनुभव कर रहे थे, मास आया कि आज उस महातपस्वी का आहार करने का समय था। 'अरे मैं अधन्य हूँ। महातपस्वी ने व्रतान्त भोजन नहीं किया, ऐसा सोचता हूँ।' समीपवर्ती सेवक से उसने पूछा, "आज वे तापस महानुभाव आये या नहीं ?" तब उसने भली प्रकार पता लगाकर निवेदन किया, “देव ! आये थे, किन्तु महारानी के पुत्रजन्मरूप अभ्युदय से मानन्दित हुए अत्यन्त प्रमादी सेवकों में से किसी ने उनकी सेवा वगैरह नहीं की अतः वह शीघ्र ही निकल गये।"
राजा ने कहा, "ओह ! मेरे पाप का फल । उस महातपस्वी के धर्म में विघ्न उपस्थित करने के कारण महारानी के पुत्रजन्मरूप अभ्युदय को भी आपत्ति ही मानता हूं। मन्दपुण्य वाले व्यक्तियों के घरधन की वृष्टि नहीं होती है। प्रमाद के दोष से मैं दूषित नहीं हूँ---ऐसा नहीं है । वृत्तान्त से ही उनका मुख देख न सका, अतः हे १. सब्बो, २. निमित्तमेत्तं, ३. निवेदियं ।
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