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याकिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि- परमसत्यप्रिय-भगवत् -श्री
हरिभद्रसूरिविरचिता समराइच्चकहा
पणमह विजिअ ' सुदुज्जय- निज्जिअ ' सुरमणुअ-विसमसरपसरं । तिहुअणमंगलनिलयं वसहगइगयं जिणं उसहं ॥१॥ परमसिरिवद्धमाणं पणट्टमाणं विसुद्धवरनाणं । गयजो जोईसं सयंभुवं वद्धमाणं च ॥२॥ सेसे चिय बावीसे जाइ जरा मरण-बंधणविमुक्के । तेलोक्कमत्थयत्थे तित्थयरे भावओ नमह ॥३॥ उवणेउ मंगलं वो जिणाण महलालिजालसंवलिआ " । तित्थपवत्तणसमए तिअ सविमुक्का कुसुमवुट्टी ॥४॥
प्रणमत विजित- सुदुर्जय - निर्जित-सुरमनुजविषमशरप्रसरम् । त्रिभुवन मङ्गलनिलयं वृषभगतिगतं जिनम् ऋषभम् ॥१॥ परमश्रीवर्द्धमानं प्रनष्टमानं विशुद्धवरज्ञानम् । गतयोगं योगीशं स्वयंभुवं वर्द्धमानं च ॥२॥ शेषांश्चैव द्वाविंशति जाति-जरा-मरणबन्धन- विमुक्तान् । त्रैलोक्य- मस्तकस्थान् तीर्थंकरान् भावतो नमत ॥ ३॥ उपनयतु मङ्गलं वो जिनानां मुखराऽलिजालसंवलिता । तीर्थप्रवर्तनसमये त्रिदशविमुक्ता कुसुमवृष्टिः ॥ ४ ॥
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देवताओं और मनुष्यों को जीतने वाले, दुर्जेय कामदेव के बाणों की अबाधित गति को रोकने वाले, तीनों लोकों के मङ्गलों के निधान तथा उत्तम (मोक्ष रूप ) गति को प्राप्त करने वाले श्री ऋषभजिन को प्रणाम करो ||१|| जिनकी उत्कृष्ट (मोक्षरूप) लक्ष्मी वृद्धिंगत है, जिनका मान नष्ट हो गया है, जिनका ज्ञान विशुद्ध और श्रेष्ठ है. जिनके योग ( मन-वचन-काय) की प्रवृत्ति नष्ट हो गयी है, जो योगियों के अधिनायक और स्वयम्भू हैं, ऐसे श्री वर्द्धमान तीर्थंकर) को भी प्रणाम करो || २ || शेष बाईस तीर्थंकरों को ( भी ), जो जन्म- जरा और मृत्यु के बन्धनों से छूट चुके हैं तथा जो लोकत्रय के मस्तक (शिखर) पर विराजमान हैं, भावपूर्वक नमस्कार करो ||३|| जिनेन्द्रों के तीर्थ-प्रवर्तन के समय देवों द्वारा की गयी फूलों की वर्षा, जो कि शब्द करते (गुंजारते हुए ) भ्रमर - समूह
१, विजय, २. निज्जिय, ३. मणुय, ४. तिहुयण, ५. गणजोयं, ६. जिणाणं, ७ संवलिया, ८. तियस ।
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