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प्रवचनसार
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गुनपरजायवन्त द्रव्य भगवन्त कहीं,
सुभाव सुमात्री ऐसे गही 'गनधार है । जैसे हेम द्रव्य गुन गौरव सुपीततादि,
परजाय कुण्डलादिमई निरधार है ॥ ३४ ॥ जैसे जो दरब ताको तेसो परिनाम होत,
देखो भेदज्ञानसों न परौ दौर धूपमें । ताते जब आतमा प्रनवै शुभ वा अशुभ,
अथवा विशुद्धभाव सहज स्वरूपमें ॥ तहां तिन भावनिसों तदाकार होत तव,
व्याप्य अरु व्यापकको यही धर्म रूपमें । कुन्दकुन्द स्वामीके वचन कुन्द इन्दुसे हैं,
घरो उर वृन्द तो न परौ भवकू में ॥ ३५ ॥
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है दो प्रकारके चारित्रका (शुद्ध और शुभ) परस्पर विरुद्ध फल
मत्तगयन्द । है धर्म सरूप जबै प्रनवै यह, आतम आप अध्यातम ध्याता । है शुद्धुपयोग दशा गहिकै, सु लहै निरवान सुखामृत ख्याता ॥ है होत जबै शुभरूपपयोग, तबै सुरगादि विभौ मिलि जाता । आपहि है अपने परिनामनिको फल भोगनहार विधाता ॥ ३६॥
मोतीदाम । हैं जबै जिय धारत चारित शुद्ध । तवै पद पावत सिद्ध विशुद्ध । है सराग चरित्त धरै जब चित, लहे सुरगादि विर्षे वर वित्त ॥ ३७॥ है १ गणघरदेव ।