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कविवर वृन्दावन विरचित
मनहरण । जाने काललब्ध पाय दर्श मोहको खिगाय,
उपशमवाय वा सुश्रद्धा यों लहाही है । मेरो चिदानंदको दरव गुन परजाय,
उतपाद वय धुव सदा मेरे पाहीं है ॥ और परदर्व सर्व निज निज सत्ताहीमें,
कोऊ दर्व काहूको सुभाव न गहाही है । तातें जो प्रगट यह देह खेह-खान दीसे,
___ सो तो मेरो रूप कहूं नाहीं नाहीं नाहीं है । २०॥ म (१०) गाथा-१५४ अब आत्माकी अन्य द्रव्य के साथ
संयुक्तता होनेपर भी अर्थ निश्चायक अस्तित्व के स्व-पर विभागके हेतु रूपमें समझाते हैं।
मिला। उपयोगसरूप चिदातम सो, उपयोग 'दुधा छवि छाजत है। नित जानन देखन भेद लिये, सो शुभाशुभ होय विराजत है ॥ तिनही करि कर्मप्रबंध बँधै , इमि श्रीजिनकी धुनि गाजत है।
जब आपमें आपुहि बाजत है, तब श्योपुर नौबत वाजत है ॥२१॥ (११) गाथा-१५५-१५६ आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये परद्रव्यके संयोगके कारणका स्वरूप कहते हैं।
मनहरण । जब इस आतमाके पूजा दान शील तप,
__संजम क्रियादिरूप शुभ उपयोग है । १. मलकी खानि । २. द्विधा-दो प्रकार । ३. शिवपुर-मोक्ष ।