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प्रवचनसार
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माधवी। अपने असतित्व सुभावविपैं, नित निश्चलरूप पदारथ जो है। चिनमूरत आप अमूरत जीव, असंख प्रदेश धरै वह तो है ॥ तिसके पर पुग्गलके परसंगते, सो परजाय अनेकनि हो है। हूँ जसु संहननौर अकार अनेक, प्रकार विभेद सुवेद भनो है ॥१७॥ (८) गाथा-१५२ आत्माकी अत्यंत भिन्नता सिद्ध करने के लिये व्यवहार जींवत्लकी हेतुभून मनुष्यादि पर्यायोंका स्वरूप।
मनहरण । संसार अवस्थामाहिं जीवनिके निश्चैकरि,
पुग्गलविपाकी नामकर्म उदै आयेते । नर नारकौर तिरजंच देवगति विपैं,
जथाजोग देह वनै परजाय, , पायेते ॥ संसथान संहनन आदि बहु भेद जाके,
पुग्गलदरवकरि रचित बतायेतै । जैसे एक आगि है अनेक रूप ईधनतें,
नानाकार से तहां चेतन सुभायेते ॥१८॥ (९) गाथा-१५३ अब पर्यायके भेद ।
मत्तगयन्द । जे भवि भेदविज्ञान धरै, सब दर्वनिको जुत भेद सुजाने । ने अपनो सदभाव धरै, निज भाववि थिर हैं परघाने ॥ द्रव्य गुनौ परजायमई, तिनको धुव व उतपाद पिछाने ।
सो परदर्वविर्षे कबहूँ नहिं, मोहित होत सुबुद्धिनिधाने ॥१९॥ है १. संहनन-और। २. मारफ + और । ३. व्यय-नाश ।