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प्रवचनसार
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तहां पुन्च खिरै नित नूतन करम बंधै,
गोरखको धंधा नटबाजीसी नटतु है । आगेको वटत जात पाछे पछरू चवात,
जैसे गहीन नर जेवरी वटतु है ॥३९॥ जाने निजआतमाको जान्यो मेदज्ञानकरि,
इतनो ही आगमको सार अंश चंगा है। ताको सरधान कीनों प्रीतिसों प्रतीति भीनों,
ताहीके विशेषमें अभंग रंग रंगा है । वाहीमें विजोगको निरोधिके सुथिर होय,
तबै सर्वकर्मनिको क्षपत प्रसंगा है। आपुहीमें ऐसे तीनों साधं वृन्द सिद्धि होत,
जैसे मन चंगा तो कठौतीमाहिं गंगा है ॥४०॥ (८) गाथा-२३९ आत्मज्ञान विना तीनों एक साथ . हो तो भी, अकिंचित्कर हैं।
माधवी। जिसके तन आदि विषै ममता, वरतै परमानुहुके परमानी । तिसको न मिलै शिव शुद्धदशा, किन हो सब आगमको वह ज्ञानी ॥ अनुराग कलंक अलंकित तासु, चिईक लसै हमने यह जानी । जिमि लोक विर्षे कहनावत है, यह ताँत बजी तब राग पिछानी ॥४१॥
दोहा । ज्यों करमाहिं विमल फटिक, देख परत सब शुद्ध ।
त्यों मुनि आगम लखहिं, सकल तत्त्व अविरुद्ध ॥ ४२ ॥ १. बछड़ा। २. अंधा । ३. रस्मी मांजता है।