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प्रवचनसार
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दोहा । चार अधिक उनईससौ, संवत विक्रम भूप । जेठ महीनेमें कियो, पुनि आरंभ अनूप ॥१२८॥ पांच अधिक उनईससौ, धवल तीज वैशाख । यह रचना पूरन भई, पूनी मन अभिलाख ॥१२९॥ __ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारनी मूल गाथा ताकी संस्कृतटीका श्री अमृतचन्दाचार्यने करी ताकी देशभाषा पांडे हेमराजजीने रची है, ताहीके अनुसारसों वृन्दावन अग्रवाल गोइलगोतीने भाषा छन्द रची तहां यह मुनिशुभचारित्राधिकार समाप्तं ।
सर्वगाथा २७५ दोयसौ पचहत्तर भाषाके छन्द सर्व १०९४ एक हजार चौगनवे भये सो जयवंत होहु । श्रीरस्तु मंगलमस्तु-सं. १९०५ सर्व भाषाके छन्द ११६२ अंकेय ग्यारहसै बासठ भये(इह मूल ग्रन्थकर्ताके हाथकी प्रथम प्रति लिखी है।
सो सदा जयवंत प्रवर्ती)
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समाप्त
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