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प्रवचनसार
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(२१) गाथा-२६५ सच्चे श्रमणोंके प्रति जो द्वेप रखे, थादर न रखे उनका नष्टत्त ।
मत्तगयन्द। श्री जिनशासनके अनुसार, प्रवर्ततु हैं जे महामुनिराई । जो तिनको लखि दोष धरै, अनआदर” अपवाद कराई ॥ जे विनयादि क्रिया कही वृन्द, करै न तहां सो सुहर्ष बढ़ाई । सो मुनि चारितभ्रष्ट कहावत, यों भगवंत भनी सुनि भाई ॥५२॥ (२२) गाथा-२६६ स्वयं गुणोंमें हीन हैं फिर भी
अधिक गुणी ऐसे धमों के पास विनयको चाहना रखते हैं वह कैसा?
द्रुमिला। । अपने गुनते अधिके जे मुनी, गुन ज्ञान सु संजम आदि भरै ।
तिनसों अपनी विनयादि चहै, हम हू मुनि हैं इमि गर्व धेरै ॥ । तब सो गुनधारक होय तऊ, मुनि मारगतै विपरीत चरै । । वह मूढ़ अनन्त भवावलिमें, भटकै न कभी भवसिंधु तरै ॥५३॥ (२३) गाथा-२६७ यदि जो श्रमण, श्रमण्यसे अधिक
तो है ही फिर भी अपनेसे हीनके प्रति विनय आदि बरावरी जैसा करे तो उसका विनाश ।।
मत्तगयन्द । आपु विर्षे मुनिके पदके गुन, हैं अधिके उतकिण्ट प्रमानै । । सो गुनहीन मुनीननकी, जो करै विनयादि क्रिया मनमानै ॥
तो तिनके उरमाहि मिथ्यात, -पयोग लसै लखि लेहु सयानै । । है यह चारितभ्रष्ट मुनी, अनरीति चलै जतिरीति न जानै ॥५४॥