Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala
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२३८ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
(५) गाथा-२७५ अब आचार्य देव शिष्यजनोको शास्त्रफलके माथ जोड़ते हुये शास्त्र पूर्ण करते हैं।
छप्पय । जो यह शासन भलीभांति, जान भवि प्रानी । श्रावक मुनि आचार, जासुमधि सुगुरु बखानी ॥ सो थोरे ही कालमाहि, शुद्धातम पवि ।
द्वादशांगको सारभूत, जो तत्त्व कहावै ॥ मुनि कुन्दकुन्द जयवंत जिन, यह परमागम प्रगट किय । चन्दावनको भव उदधितै, दै अवलम्ब उधार लिय ॥१०६॥
द्वादशांगश्रुतिसिंधु, मथन करि रतन निकासा । सुपरभेद विज्ञान, शुद्ध चारित्र प्रकासा ॥ सो इस प्रवचनसारमाहि, गुरु वरनन कीना ।
अध्यातमको मूल, लखहिं अनुभवी प्रवीना ॥ मुनि कुन्दकुन्द कृत मूल जु सु, अमृतचन्द टीका करी । तसु हेमराजने वचनिका, रची अध्यातमरसभरी ॥१०७॥
मनहरण । दोइ सौ पछत्तर पराकृतकी गाथामाहिं,
लन्दकुन्द स्वामी रची प्रवचनसार । अध्यातमवानी स्यादवादकी निशानी जाते,
सुपरप्रकाशबोध होत निरधार है ।। निकट-सुभव्यहीके भावभौनमाहिं याकी,
दीपशिखा जगै भगै मोह अंधकार है । मुख्य फल मोख औ अमुख्य शकचक्रिपद,
वृन्दावन होत अनुक्रम भव पार है ॥१०८॥

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