Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala
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२४० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
अवलोके नाटकत्रयी पुनि, औरहु ग्रंथ अनेक जब । तव कविताईपर रुचि बढ़ी, रचो छन्द भवि वृन्द अब ॥१११॥
सम्वत विक्रमभृप, ठारसौ वेशठमाहीं । यह सब वानक वन्यौ, मिली सतसंगतिछाहीं ॥ तब श्री प्रवचनसार, अन्यको छन्द बनावों ।
यही आश उर रही, नासुत निजनिधि पावों ।। तव छन्द रची पूरन करी, चित न रुचि तब पुनि रची । सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकांत रससों मची ॥११२॥
अथ ग्रन्यपरिसमाप्तिमङ्गल
दोहा । वन्दों श्रीसरवज्ञ जो, निरावरन निरदोष । विघ्नहरन मंगलकरन, मनवांछित सुख पोष ॥११३।। पंचपरमगुरुको नमो, उर धरि परम सनेह । भवदवित भवि वृन्दको, पार उतारत तेह ॥११॥ जिनवानी जिनधर्मको, वदों वारंवार । जिस प्रसादतै पाइये, ज्ञानानन्द अपार ॥११५ । सज्जनसों कर जोरके, करों वीनती मीत । भूल चूक सब सोषिक, शुद्ध कीजियौ रीत ||११६॥ यामें हीनाधिक निरखि, मूलअन्यको देखि । शुद्ध कीजियो सुजनजन, वाल्बुद्धि मम पेखि ॥११७||
१. यह दोहा छन्दगतकमें भी है।

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