Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala
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प्रवचनसार
[ २३५
और यही संसार थिति, मोक्षस्थिति विरतंत । प्रगट करत हैं तासुतै, होहु सदा जयवंत ।। ९२ ॥ पंचरतनको नाम अब. सुनो भविक अभिराम । डर सरधा दिढ़ धारिक, वेगि लहो शिवधाम ॥ ९३ ॥
छप्पय । प्रथम तत्व संसार, मोक्ष दुजो पुनि जानो । मोक्षतत्वमाधक तथैव. साधन उर आनो ।। सर्वमनोरथ सुखद, -थान शिष्यनिको वग्नी ।
शास्त्रश्रवणको लाभ, तुरित भवसागर तरनी ।। यह पंचरतन इस ग्रंथमें, सकल ग्रंथ मथिके धरे । वृन्दावन जो सरधा करै, सो भाव तरि शिवतिय वरे ॥१४॥ (१) गाथा-२७१ संसारतत्त्व ।
छप्पय । जो मुनिमुदा धारि, अर्थ अजथारथ पकरी । नथा गोह गहि भूमि, तथा हारिलने लकरी ॥ जो हम निश्चय किया, सोइ है तत्त्व जथारथ ।
इमि हठसों एकांत, गहै वर्जित परमारथ ॥ सो भमै अगामीकालमें, पंचपरावर्तन करत । दुखफल अनंत भोगत सदा, कबहुँ न भवसागर तरत ।। ९५॥
दोहा । मिथ्याबुद्धि विकारतें, जे जन अज्ञ अतीव । अजथारथ ही तत्व गहि, हटजुत रहत सदीव ॥ ९६ ॥

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