Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala
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फविवर वृन्दावन विरचित
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परम पुन्यके उदयतें, मिल्यौ सुघाट सुजोग । अब न चूक भवि वृन्द यह, नदी नाव संजोग ॥ ८३ ॥ सकल ग्रंथको मंथके, पंथ कयो यह सार । कुन्दकुन्द गुरुदेव सो, मोहि करो भव पार । ८४ ॥ जयवंतो वरती सदा, श्रीसरवज्ञ उदार । जिन भाग्यौ यह मुकतिमग, श्रीमत प्रवचनमार ॥ ८५ ॥ यह मुनि शुभ आचारको, पूर्ण भयो अधिकार । सो जयवंतो होहु जग, रविशशिकी उनिहार ॥ ८६ ॥ मंगलकारी जगत गुरु, शुद्ध सिद्ध अग्हंत । सो याही मगरौं किये, सकल करमको अंत ।। ८७ ।। ताते परम पुनीत यह, जिनशासन सुखकंद । वृन्दावन सेवत सदा, दायक सहजानन्द ॥ ८८ ॥
अथ पञ्चरत्नतत्त्वस्वरूपो लिख्यते ।
मंगलाचरण-दोहा। पंच परमपद वंदिके, पंचरतनको रूप । गाथा अरथ विलोकिक, लिखों सुखद रसकूष ।। ८९ ।। मानो इस सिद्धांतके, एई पांचों रत्न । मुकुटसरूप विराजहीं, उर धरिये जुत जन ॥ १० ॥ अनेकांत भगवंतमत, ताको जुत संक्षेप । दरसावत है रतन यह, नय प्रमान निक्षेप ॥ ९१ ॥

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