Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala
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प्रवचनसार
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जैसे लोहा काठ संग, पहुँचै सागर पार । तैसे अधिक गुनीनि संग. गुन लहि तजहि विकार ॥ ७२ ॥ ज्यों मलगगिरिके विपैं, बावन चंदन जान । परसि पौन तसु और तरु, चन्दन होहिं महान ॥ ७३ ।। त्यों सतसंगति जोगते, मिटै सकल अपराध । सुगुन पाय शिवमग चलै, पावै पद निरुपाध ॥ ७४ ॥ देख कुसंगति पायके, होहिं सुजन सविकार । अगिनि-जोग जिमि जल गरम, चंदन होत अँगार ॥ ७५॥ छीर जगत जन पोषिक, करत वीजदुति गात । सोई अहिमुग्व परत ही, हालाहल है जात ॥ ७६ ।। ताते वहुत कहों कहा, जे ज्ञाता परवीन । ते थोरेहीमें लखहिं, संग रंगकी बीन ॥ ७७ ॥ दुर्जनको उपदेश यह, निष्फल ऐसें जात । पाथर परको मारिबो, चोखो तीर नसात ॥ ७८॥ ताते निजहित हेतको, गहन करहिं बुधिधार । हंस पान *पयको करत, जिमि तजि वारिविकार ॥ ७९ ॥ यों मत चितमें जानियौ, मुनिकहँ यह उपदेश । श्रावकको तो नहिं कह्यो, मूल ग्रंथमें लेश ॥ ८० ॥ मुनिके मिष सबको कह्यो, न्याय रीति निरबाह । जिहि मगमें नृप पग धरै, प्रजा चलै तिहि राह ।। ८१॥ ऐसो जानि हिये सदा, जिन आगम अनुकूल । करो आचरन हे भविक, करम जलें ज्यों तूल ॥ ८२ ॥
१. पवन-हवा। २. दूध । ३ विजली जैसी कांति । ४. दूध ।

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