________________
प्रवचनसार
[ २१९
(२) गाथा-२४६ शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण ।
रूप सवैया। जो मुनिके उर अंतरमाहीं, यह परनति वरतै सुनि भव्व । अरहंतादि पंचगुरुपदमें, भगत उमंग रंग रसतम्व ॥ तथा परम आगम उपदेशक, तिनसों वच्छलता विनु गन्न । सो शुभरूप कहावत 'चरिया, यो वरनी जिनगनधर पन्च ॥१३॥
छप्पय ।
जो परिगह परिहार, सुमुनिमुद्राको धारै । - पै कपायके अंश, तासुके उदय लगारे ॥
ताते शुद्धस्वरूपमाहिं, थिरता नहिं पावै ।
तब पन शुद्धस्वरूप, सुगुरुसों प्रीति बढ़ावै ॥ अरु जे शुद्धातमधरमके, उपदेशक तिनमें हरखि । वर भक्ति सु सेवा प्रीतिजुत, बरततु है मुनिमग परखि ॥ १४ ॥
सोरठा। तिस मुनिके यह नानु, इतनहिं राग सु अंशकरि । पर दरवनिमें मानु, है प्रवृत्ति निहचैपनै ॥ १५ ॥ सो शुद्धातमरूप, ताकी थिरतासों चलित । यों भापी जिनभूप, वह शुभभावचरित्रधर ॥ १६ ॥ पंच परमगुरुमाहिं, भगत सु सेवा प्रीति जहँ । सो शुभमग कहलाहिं, शुभ उपयोगिनिके चिह ॥ १७ ॥
है १. भव्य । २. वत्सलता। ३. गर्व-अभिमान । ४. चर्या-वृत्ति ।