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फविवर वृन्दावन विरचित
दोनों कर्म भार भरे कैसे भवसिंधु तर.
पाथरकी नाव कहूँ पानीमाहिं तरी है ॥४२॥ (१४) गाथा-२५८ कारणकी विपरीततासे सत्यार्थ फल
सिद्ध नहीं होता। इन्द्रिनिके भोगभाव विषय कहाबैं और,
क्रोबादिक भाव ते कपायरूप वरनी । इन्हैं सर्व सिद्धांतमें पाप ही मथन वरी,
तथा इन्हैं धारै सोऊ पापी उर धरनी ॥ ऐसे पाप भारकरि भरे जे पुरुष ते सु,
-भक्तनिको कसे निसतारें निरवरनी । आपु न तरेंगे औ न तारेंगे सु भक्तनिको, दोनों पाप भार भरे भोग पाप करनी ॥४३॥
दोहा । विषय कषायी जीवको, गुरुकरि सेयें मीत ।
उत्तम फल उपजै नहीं, यह दिढ़ करु परतीत ॥ १४ ॥ (१५) गाथा-२५९ यथार्थ फलका कारण ऐसा जो
अविपरीत कारण।
मत्तगयन्द । जो सब पाप क्रिया तजिक, सब धर्मविर्षे समता विस्तारै । ज्ञान गुनादि सबै गुनको, जो अराधत साधत हैं श्रुतिद्वारें ॥ होहिं सोई शिवमारगके, वर सेवनहार मुनीश उदारें । आपु त भविको भव तारहिं, पावन पूज्य त्रिलोकमझारें ॥४५॥