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कविवर वृन्दावन विरचित
ताहीकरि परंपरा पावै सो परम सुख,
निहचे बखानी श्रुति या ना भरम है ॥ ३५ ॥ (११) गाथा-२५५ कारणको विपरीतता-फलकी भी।
कवित्त । यह प्रशस्त जो रागभाव सो, वस्तु विशेष जो पात्रविधान । तिनको जोग पायकरि सोई, फल विपरीत फलत पहिचान || ज्यों कृपि समै विविध धरनी तह, अविधि धरनिमहँ वीज वुवान । सो विपरीत फलत फल निहचे, कारन सम कारज परमान ॥३६॥ (१२) गाथा-२५६ कारण और फलकी विपरीतता।
मनहरण । छदमस्थ बुद्धीने जो आपनी उकतिहीसों,
देव गुरु धर्मादि पदारथ थोपै है। व्रत नेम ध्यानाध्येन दानादि बखाने तहां,
तामें जो सुरत होय प्रीति करि व्यापै है ॥ तासों मोखपद तो सरवथा न पावै वै,
उपाव पुन्यरूप भाववीज यों अलापै है । ताको फल भोगै देव मानुष शरीर धरि, फेरि सो जगतहीमें तपै तीनों तापै है ॥ ३७॥
कवित्त ( ३१ मात्रा) । वीतराग सरवज्ञदेवकरि, जो भाषित है वस्तुविधान । देवधर्म गुरु ग्रंथ पदारथ, तिनमें जो प्रतीति रुचिवान ।। सो शुभरागभाव वृन्दावन, निश्चयसों कीजो सरधान । ताको फल साच्छात पुन्य है, परंपरा दे है शिवथान ॥३८॥