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प्रवचनसार
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तहाँ तुम आफ्नी शकतिके प्रमान मुनि,
ताकी वैयावृत्ति आदि करो जो उचित है ।। जात वह साध निरुपाध होय वृन्दावन,
___ सहजसमाधमें अराधै जो सुचित है ॥ ३३ ॥ (९) गाथा-२५३ शुभोपयोगी श्रमण है वह लोगोंके साथ बातचीतको प्रवृत्ति किस निमित्तसे करे यो योग्य है। रोगी मुनि अथवा अचारज सुपूज गुरु,
तथा बाल वृद्ध मुनि ऐसे मेद वरनी । तिनकी सहाय सेवा आदि हेत मुनिनिको,
लौकिक जनहूसों सुसंभाषन करनी ॥ जामें तिन साधनके खेदको विछेद होय,
ऐसे शुभ भावनिसों वानीको उचरनी । सराग आनन्दमें अनिंद वृन्द विधि यह,
सुपरोपकारी बुधि भवोदधितरनी ॥ ३४ ॥ (१०) गाथा-२५४ शुभका मौण-मुख्य विभाग । यह जो प्रशस्त रागरूप आचरन कहो,
वैयावृत्त आदि सो तो बड़ोई धरम है । मुनिमण्डलीमें यह गौनरूप राजे जाते,
तहां रागभाव मंद रहत नरम ः है । श्रावक पुनीतके बड़ोई धरमानुराग,
तातें तहां. उतकिष्ट मुख्यता परम है ।
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१. चित्स्वरूप आत्मा ।