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फविवर वृन्दावन विरचित
है मुनि शुद्धपयोगिनिके ढिगमें, पुनि जे बरतें अनुराग भैरै । फहिये अब ते मुनि है कि नहीं, इमि पूछन शिष्य विनीत वरै ॥ ६ ॥
दोहा । याको उत्तर प्रथमही, ग्रंथारम्भतमाहिं । कहि आये हम हैं भविक्र, पुने समुझो इहि ठाहिं ॥ ७ ॥
माधवी । पनिज धर्मसरूप जबै प्रनवै, यह आतम आप अध्यातम ध्याता ।
तव शुद्धुपयोगदशा गहिके, सो लहै निरवान सुखामृत ख्याता ॥ ६ अरु होत जहां शुभरूपपयोग, तहां सुरगादि विभौ मलि जाता । यह आपुहि है अपने परिनामनिको, फल भोगनिहार विधाता ॥ ८॥
दोहा । शुभपयोगसों और पुनि, शुद्धातम निजधर्म । तिनसों एक अस्थविपैं, है समवाय सुपर्म ॥ ९ ॥ एकातमहीके विपैं, दोनों भाव रहाहिं । तातें दोनों भावको, धरम कही श्रुतिमाहि ॥ १० ॥ याही नयते हे भविक, शुभ उपयोगी साध । तेऊ मुनि हैं पै तिन्हैं, आस्रव कर्म उपाध ॥ ११ ॥ शुद्धपयोगीके नहीं, करमानवको लेश ।
ते सब कर्म विनाशिक, होहिं शुद्ध सिद्धेश ॥ १२ ॥ १. यह पहले अध्यायकी ग्यारहवीं गाथाका अनुवाद है, जो किपहले अध्यायमें छप चुका है (पृष्ठ १९में ) अन्तर इतना है कि वहाँ छन्द मत्तगयन्द था, हा प्रत्येक चरणमें दो दो लघु (निज, तब, अरु, यह ) डालकर माधवी बना दिया है।
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