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कविवर वृन्दावन विरचित
ये तिहूँ भाव सु अंग हैं, अंगी आतम तास । अंगी अंग सु एकता, सदा सधत सुखरास ॥ ५७ ।। इमि एकता सुभाव जो, प्रनयो भातम आप । सोई संजम भाव है, आप रूपमें व्याप ॥५८ ।। सो जद्दिप तिहुँ मेदकरि, है अनेक परकार । तदिप एक स्वरूप है, निरविकलप नय द्वार ॥ ५९॥ जैसे एकपना त्रिविधि, मधुर आमलो तीत । सुरस स्वाद तब मिलत जब, निरविकलप रसप्रीत ॥ ६० ॥ तैसे सो संजम जदपि, रतनत्रयतै भेद । तदपि सुभाविक एकरस, एक गहै अखेद । ६१ ॥ परदरवनिसों मिन्न नित, प्रगट एक निजरूप । ताहि सु मुनिपद कह हुआ, शिवमग कहो अनूप ॥१२॥ सो शिवमगको तीन विधि, परजैनयके द्वार । भाषतु हैं विवहारकरि, जाको भेद अपार ॥ ६३ ॥ अरु एकतासरूप जो, शिवमग वरनन कीन । दरवार्थिकनय द्वारतें, सो निहचै रसलीन ।। ६४ ॥ जेते भेदविकल्स हैं, सो सब हैं विवहार । अरु जो एक अभेदरस, सो निहचै निरधार ॥६५॥ ऐसो शिवमग जानिके, निज आतम हित हेत । हे भवि वृन्द करो गहन, जो अबाध सुख देत ।। ६६॥ (१२) गाथा-२४३ अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं । जिस मुनिके नहिं, सुपरमेदविज्ञान विराजै ।, अज्ञानी तसु नाम, कही जिनवर महाराज ॥
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