Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala
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प्रवचनसार
[२१३
(१०) गाथा-२४१ ऐसे संयतका लक्षण ।
छप्पय । जो जाने समतुल्य, शक अरु बंधुवर्ग निजु । सुखदुखको सम जानि, गहै समता सुभाव हि जु ।। थुति निंदा पुनि लोह कनक, दोनों सम जाने ।
जीवन मरन समान मानि, आकुलदल भान । सोई मुनि वृन्द प्रधान है, समतालच्छनको धेरै ॥ निज साम्यभावमें होय थिर, शुद्ध सिद्ध शिव तिय वरै ॥५१ ।।
(११) गाथा-२४२ एकाग्रता लक्षण श्रामण्य ।
मत्तगयन्द।
जो जन सम्यकदर्शन ज्ञान, चरित्र विशुद्ध सुभाविकमाहीं । एकहि वार भली विधिसों, करि उद्यम वर्ततु है तिहि ठाहीं ॥ सो निज आतममें लवलीन, इक्रारदशामहँ प्रापति आहीं । है तिनको परिपूरनरूप, मुनीश्वरको पद संशय नाहीं ॥५२॥
दोहा । ज्ञेय रु ज्ञायक तत्त्वको, जहां शुद्ध सरधान । सोई सम्यकदरश है, दूपनरहित प्रमान ॥ ५३ ।। ताहि जथावत जानिबो, सो है सम्यकज्ञान । दरशज्ञानमें सुथिरता, सो चारित्र प्रधान ॥ ५४ ।। येई तीनों भाव हैं, भावक आतम तास । आपहि आपु सुभावको, भाव थिर सुखरास ॥ ५५ ॥ इन भावनिके बढ़नकी, जहँ लगु हद्द प्रमान । तहँ लगु बढ़हिं परस्पर, सुगुनसहित गुनवान [॥ ५६ ॥

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