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कविवर वृन्दावन विरचित
तत्त्वनिमें रुचि परतीति जो न आई तो धौं,
कहा सिद्ध होत कीन्हें आगम पठापठी । तथा परतीति प्रीति तत्त्वहूमें आई पै न,
त्यागे राग दोष तौ तो होत है गठागठी ॥ तबै मोखसुख वृन्द पाय है कदापि नाहिं,
तातें तीनों शुद्ध गहु छांडिके हठाहठी । जो तू इन तीन विन मोखसुख चाहै तौ तो,
सूत न कपास करै कोरीसों लठालठी ॥३७॥ (७) गाथा-२३८ तीनोंका युगपतपना होनेपर भी आत्मज्ञान (निर्विकल्प ज्ञान) मोक्षमार्गका साधक है। आपने सुरूपको न ज्ञान सरधान जाके,
ऐसो जो अज्ञानी ताकी दशा दरसावै है । जितने करमको सो विवहार धर्मकरि,
शत वा सहस्र कोटि जन्ममें खिपावै है ॥ तिते कर्मको सु आपरूपमें सुलीन होय,
ज्ञानी एक स्वासमात्र कालमें जलाव है । ऐसो परधान शुद्ध आतमीकज्ञान जानि,
वृन्दावन ताके हेत उद्यमी रहाँव है ॥३८॥ जाके शुद्ध सहज सुरूपको न ज्ञान भयौ,
और वह आगमको अच्छर रटतु है । ताके अनुसार सो पदारथको जाने,
सरधान औ ममत्त लिये क्रियाको अटतु है ॥