Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala

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Page 217
________________ २०४] कविवर वृन्दावन विरचित ताके दोऊ भांतिको न संजम विराजै कहूं, ऐसे जिनभाषित सुवेद. वरनयो है ॥ संजम सुभावसों रहित जब भयौ तब, निहचै असंजमीकी दशा परिनयौ है । कैसे तब ताको मुनिपद सोहै वृन्दावन, सांची गैल छोडिके सोकांची गैल लयौ है ॥२४॥ दोहा। प्रथम जो आगमज्ञानतें, रहित होय सरधान । भेदज्ञान विनु किमि करें, सो निजपर पहिचान ॥२५॥ तब कषायसंमिलित जो, मोहराग परिनाम । ताके वश होकै धरौ, विषयकषाय मुदाम ॥२६॥ इन्द्रीविषयनिके विर्षे, सो परिवरत कराय । . छहों कायके जीवको, बाधक तब ठहराय ॥ २७ ॥ स्वेच्छाचारी जीव वह, ताको मुनिपद केम । सर्वत्यागको है जहां, मुनिपदवीमें नेम ॥ २८ ॥ तैसे ही पुनि तासुके, निरविकलप समभाव । परमातम निज ज्ञानधन, सोऊ नाहिं लखाव. ॥ २९ ॥ अरु जे ज्ञेयपदार्थके, हैं समूह जगमाहि । तामें ज्ञान सुछंद तसु, वरतत सदा रहाहिं ॥३०॥ याहीत निजरूपमें, होय नहीं एकत्र । ज्ञान वृत्त चंचल रहै, परसै सुथिर न तत्र ॥ ३१ ॥ १. रास्ता-मार्ग। २. प्रवृत्ति । ३. चारित्र ।

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