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प्रवचनसार
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दोहा। . तातै पुदगल दरव ही, निज सुभावते मीत । अति विचित्रगति कर्मको, कर्ता होत प्रतीत ॥ ९६ ॥ (४३) गाथा-१८८ अकेला आत्मा ही बंध है।
मनहरण । सो असंख प्रदेश प्रमान जगजीवनिके, .
मोह राग दोप ये कपायभाव संग है । ताहीत करमरूप रजकरि बधै ऐसे,
सिद्धांतमें कही वृन्द बंधकी प्रसंग है ॥ जैसे पट लोध फटकड़ी आदितै कसैलो,
चढ़त मजीठ रंग तापै सरवंग है । तैसे चिदानंदके असंख्ख परदेशपर,
चढ़त कपायतै फरम रज रंग है ॥९७ ॥ (४४) गाथा-१८९ निश्चय-व्यवहारका अविरोध । बंधको कथन यह थोरेमें गथन निहचै, .
मथनकरि ज्ञान तुलामें तुलतु है । जीवनिके होत सो दिखाई जिनराज मुनि,
मंडलीको जाने उरलोचन खुलतु है ॥ यासों विपरीत जो है पुद्गलीक कर्मवंध,
सो है विवहार बन्द काहेको भुलतु है । निज-निज भावहीके करता सरव दर्व,
___ यही भूले जीव कर्मझूलना झुलतु है ॥ ९८॥