Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala

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Page 214
________________ प्रवचनसार [ २०५ । सरवज्ञभाषित सिद्धांत विनु वस्तुनिको, जथारथ निहचै न होत सरवथा है। विना सर्वदर्वनिको भलीभांति जान कहो, कैसे निज आतमाको जानै श्रुति मथा है ॥ याहीत मुनिंदवृन्द शब्दब्रह्मको अभ्यासि, आपरूप जानि तामें होहि थिर जथा है । ताते शिवमारगको मूल जिन आगम है, ताको पढ़ो सुनो गुनो यही सार कथा है ॥ ६ ॥ दोहा । जे जन जिनशासनविमुख, वहिरमुखी ते जीव । डांवाडोल मिथ्यातवश, भटकत रहत सदीव ॥ ७ ॥ • करता वनत त्रिलोकके, कबहुं भोगता होहि । इष्टानिष्ट विभावजुत, सुथिर न कबहूँ सोहि ॥ ८ ॥ ज्यों समुद्रमें पवन , चहुँदिशि उठत तरंग । त्यों भाकुलतासों दुखित, लहैं न समरसरंग । ९ ॥ जब अपनेको जानई, ज्ञानानंदसरूप । तब न कबहुं परदरवको, करता बनै अनूप ॥ १० ॥ जो आतम निज ज्ञानकरि, लोकालोक समस्त । प्रगट पानकरि आपमें, सुथिर रहत परशस्त ।। ११ । ऐसो जो भगवान यह, चिदानन्द निरद्वंद । सो जिनशासनत लखहिं, महामुनिनिके वृन्द ॥ १२ ।। तव ताको सरधान अरु, ज्ञान जथारथ धार । ताहीमें थिर होयके, पावै पद अविकार ॥ १३ ॥

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