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कविवर वृन्दावन विरचित
फेर गुरुदेव जो सुतत्व उपदेश करें,
सोऊ पुग्गलीक वैन गहत अमंद है ॥ बड़ेनिके विनैमें लगावै पुग्गलीक मन,
तथा श्रुति पढे जो सुपुग्गलको छंद है। येते उपकर्न जैनपंथमें हैं मुनिनिके, तेऊ सर्व परिग्रह जानो भविवृन्द है ॥१२४॥
दोहा । एक शुद्धनिजरूपते, जेते भिन्न प्रपंच । ते सब परिग्रह जानिये, शुद्धधर्म नहिं रंच । १२५॥ ताते इनको त्यागिके, गहो शुद्धउपयोग । सो उतसर्ग-सुमग कहो, जहँ सुभावसुखभोग ॥१२६॥ (२६) गाथा-२२६ शरीर मात्र परिग्रह ।
मनहरण । . . जैसे घटपटादि विलोकिवेको भौनमाहि,
दीपविर्षे तेल घालि वाती सुधरत है । तैसें ज्ञानजोतिसों सुरूपके निहारिवेको,
आहार-विहार जोग कायाकी करत है ॥ यहां सुखभोगकी न चाह परलोकहूके,
सुख अभिलाषसों अबंध ही रहत है । रागादि कपायनिकों त्यागे रहै आठों जाम,
ऐसो मुनि होय सो भवोदधि तरत है ॥१२७ ।।