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प्रवचनसार
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(२७) गाथा-२२७ युक्ताहार विहारी साक्षात् अनाहार
विहारी ही है। जाको चिनमूरत सुभावहीसों काहू काल,
काहू परदर्वको न गहै सरधानसों । यही ताके अंतरमें अनसन शुद्ध तप,
निहचै विराजै वृन्द परम प्रमानसों ॥ जोग निरदोष अन्न भोजन करत तऊ,
अनाहारी जानो ताको आतमीक ज्ञानसों । तैसे ही समितिजुत करत विहार ताहि,
___अविहारी मानो महामुनि परधान सो ॥१२८॥ (२८) गाथा-२२८ मुनिके युक्ताहारित्व कैसे सिद्ध होता है ? मुनि महाराजजूके केवल शरीरमात्र,
एक परिग्रह यह ताको न निषेध है। ताहूसों ममत्त छाँरि वीतरागभाव धारि,
अजोग अहारादिको त्यागें ज्यों अमेध है । नाना तपमाहिं ताहि नितही लगाये हैं,
आतमशकतिको प्रकाशत अवेध है । सोई शिवसुन्दरी स्वयंवरी विधानमाहि,
मुनि वर होय वृन्द 'राधावेध' वेध है ॥१२९॥ • (२९) गाथा-२२९ युक्ताहारका विस्तारसे वर्णन । एक बार ही अहार निश्चै मुनिराज करें,
सोऊ पेट मेरै नाहिं ऊनोदरको गहै ।