Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala
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२०२ ]
कविवर घृन्दावन विरचित
अरु जे कठिनाचार ही, हठकरि सदा करात । कोमल मग पग धारतें, लघुता मानि लजात ॥१६२॥ देशकालवपु देखिकै, करहिं नाहिं आचार । अनेकांतसों विमुख सो, अपनो करत बिगार ॥१६३॥ वह अतिश्रमतें देह तजि, उपजै सुरपुर जाय । संजम अम्रत वमन करि, करम विशेष बँधाय ॥१६४॥ तातें करम बँधै अलप, सधै निजातम शुद्ध । . सोई मग पग धारिबो, संजम सहित विशुद्ध ॥१६५। है सरवज्ञ जिनिंदको, अनेकांत मत मीत । ताते दोनों पंथसों, हे मुनि राखो रीत ॥१६६॥ कहुँ कोमल कहुँ कठिन व्रत, कहुँ जुगजुत वरतंत । शुद्धातम जिहि विधि सधै, वह मुनिमग सिद्धंत ॥१६॥ संजमभंग बचायकै, देश काल वपु देखि । कोमल कठिन क्रिया करो, करम न बँधै विशेखि ॥१६८॥ अरु अस हठ मति राखियो, संजम रहै कि जाहि । हम इक दशा न छाँड़ि हैं, सो यह जिनमत नाहि ॥१६९॥ जैसो जिनमत है सोई, कहो तुम्हें समुझाय । जो मगमें पग धारि मुनि, पहुंचे शिवपुर जाय ॥१७०॥ कहूं अकेलो है यही, जो मारग अपवाद । कहूं अकेलो लसतु है, जो उतसर्ग अनाद ॥१७॥ कहुं उतसर्गसमेत है, यहु मारग अपवाद । कहुं अपवादसमेत है, मगउतसर्ग अवाद ॥१७२॥

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