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फविवर वृन्दावन विरचित
मुनिमग दोय प्रकार कहि, प्रथमभेद उतसर्ग । दुतिय भेद अपवाद है, दोउ साधत अपवर्ग ॥११२॥
चौपाई। मुनि उततर्ग-मार्गकेमाहीं । सकल परिग्रह त्याग काहीं ॥ है जातें तहां एक निजआतम । सोई गहनजोग चिढगातम ॥११३॥
तासों मिन्न और पुदगलगन । तिनको तहां त्याग विधिसों भन || है शुद्धपयोगदशा सो जानौ । परमवीतरागता प्रमानौ ॥११॥ अब अपवाद सुमग सुनि भाई । जाविधिसों जिनराज बताई ॥
जब परिग्रहतजि मुनिपद धरई । जथा जतमुद्रा आदरई ॥११५|| । १ तब वह वीतरागपद शुद्धी। ततखिन दशा न लहत निशुद्धी ॥
तब सो देशकाल कह देखी । अपनी शकति सकल अवरेखी ॥११६॥ है निज शुद्धोपयोगकी धारा । जो संजम है शिवदातारा || है तासु सिद्धिके हेत पुनीती । जो शुभरागसहित मुनिरीती ॥११७॥ । गहै ताहि तब ताके हेतो। वाहिजसंजम साधन लेतो ॥
जे मुनिपदवीके हैं साधक । मुनिमुद्राके रंच न वाधक ॥११८॥ शुद्धपयोगसुधारन कारन । आगम-उकत करें सो धारन ॥ दया ज्ञान संजम हित होई । अपवादी मुनि कहिये सोई ॥११९॥ (२३) गाथा-२२३ उसका स्वरूप ।
मनहरण । नौ न परिग्रह कर्मबन्धको करत नाहि, .
असंजमवंत जाको जाँचै न कदाही है ।
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