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प्रवचनसार
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यही अपेच्छा यहां, कथनका जोग बना है ।
औ पुनि निह, बंध, नियत नय गहन भना है ॥ ताको मुहेत अब कहत हौं, सुनो गुनो मन लायकै । जाते सब संशय दूर है, सुथिर होहु शिव पायकै ॥१०३॥
चौबोला। जो यह जीव लखै अपनेको, निज विकारतें बंध धरै । तौ विकार तजि वीतराग है, छूटन हेत उपाय करै ॥ . जो पाकृत बंधन समुझे तव, वेदांतीवत नाहिं डरै । यही अपेच्छा यहां कथन है, समुझे सो भवसिंधु तरै ॥१०॥ (४५) गाथा-१९० अशुद्धनयसे अशुद्ध आत्माकी ही
प्राप्ति होती है ।
मनहरण । जाकी मति मैली ऐसी फैली जो शरीरपर,
दहीको कहै की हमारो यही रूप है । तथा यह मेरो ऐसो चेरो भयो मोहहीको,
छोड़े न ममत्व बुद्धि ,धेरै दौरधूप है ॥ सो तो साम्यरसरूप शुद्ध मुनिपद ताको,
त्यागिके कुमारगमें चलत कुरूप है । ताको ज्ञानानंदकंद शुद्ध निरद्वंद सुख, मिल न कदापि वह परै भवकूप है ॥१०५॥
दोहा । है अशुद्ध नयको विषय, ममता मोह विकार । ताहि धरे वरतै सु तौ, लहै न पद अविकार ||१०६॥