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प्रवचनसार
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कुल रूप वयकी विशेषताई लिये वृन्द,
मुनिनिको प्रियतर लगे सरवंग है ।। तापै यह जाय सिर नाय कर जोरि कहै,
स्वामी मोहि अंगीकार कीजिये उमंग है । ऐसे जब कहै तव स्वामी अंगीकार करें, तबै वह नयो मुनि रहै संग संग है । ४८॥
अथ आचार्य लक्षण-चौपाई । पंचाचार आप आचरहीं । औरनिको तामें थिर करहीं ।
दोनोंविधिमें परम प्रवीने । निज अनुभव समतारस भीने ॥४९॥ है जे उत्तमकुलके अवतारी । जिनहिं निशंक नमहिं नरनारी ।। है रहितकलंक करता त्यागी । सरल सुभाव सुजसि बड़भागी ॥५०॥
हीनकुली नहिं वंदनजोगू । ताके होहि न शुद्धपयोगू । है कुलक्रमके - कूरादि कुभावें । हीनकुलीमें अबशि रहावें ॥५१।। ई यात कुलविशेषताधारी । उचितकुली पावै पद भारी ।। है अरु जिनकी बाहिज छबि देखी । यह प्रतीति उर होत विशेखी ॥५२॥ है है इनके घट शुद्धप्रकासा । साम्यभाव अनुभव अभ्यासा ।
अंतरंगगत : वाहिज दरसे । रूपविशेष 'यही सुख सरसै ॥५३॥ हैं बालक तथा बुढ़ापामाहीं । बुद्धि चपल अरु विकल रहाहीं । है तिनसों रहित सूरि परधाना । धीर बुद्धि गुन कृपानिधाना ॥५४॥
जोवनदशा काममद व्यापै । तासों वर्जित अचलित आपै ।। यह विशेषता वयक्रमकेरी । ताहि धरै आचारज हेरी ॥५५।।