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फविवर वृन्दावन विरचित
संजमके घातकी न वात जाके बाकी रहै,
____ समतासुभाव जाको आवै न कथनमें ॥ सदाकाल सर्व परदनिको त्यागें रहे,
मुनिपदमाहिं जो अखंड धीर मनमें । ऐसो जब होय तब चाहै गुरु पास रहे,
चाहै सो विहार करै जथाजोग वनमें ॥ ८४॥ (१४) गाथा-२१४ श्रामण्यकी परिपूर्णताका स्थान
होनेसे म्वद्रव्यमें ही लीनताका उपदेश । सम्यकदरशनादि अनंतगुननिजुत,
ज्ञानके सरूप जो विराजे निजातमा । ताहीमें सदैव परिवर्तत रहत और,
मूलगुनमें है सावधान वातवातमा ॥ सोई मुनि मुनिपदवीमें परिपूरन है,.
अंतरंग वहिरंग दोनों भेद भातमा । नहीं अविकारी परदर्व परिहारी वृन्द,
वरै शिवनारी जो विशुद्ध सिद्ध जातमा ।। ८५ ॥ (१५) गाश-२१५ मुनिको सूक्ष्म परद्रव्य प्रतिबंध भी
श्रामण्य के छेदका आयतन होनेसे निपेध्य हैं । भोजन उपास औ निवास जे गुफादि कहे,
अथवा विहारकर्म जहां आचरत हैं। तथा देहमात्र परिग्रह जो विराजै और,
गुरु शिष्य आदि मुनिसंग विचरत हैं ।