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प्रवचनसार
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तिनकी कायक्रिया सकल, समितिसहित नित जान । तहँ पर कहूँ मेरै तऊ, करम न बँधै निदान ॥९९॥ (१८) गाथा-२१८ अंतरंग छेदका सर्वथा निषेध ।
मनहरण । नतनसमेत जाको आचरन नाहीं ऐसे,
मुनिको तो उपयोग निहचै समल है । सो तो षटकायजीव बाधाकरि बाँधै कर्म,
ऐसे जिनचंद वृन्द भाषत विमल है ॥ भौर जो मुनीश सदाकाल मुनिक्रियाविर्षे,
सावधान आचरन करत विमल है। तहाँ घात होत हू न बँधै कर्मबंध ताके,
रहै सो अलेप जथा पानीमें कमल है ॥१०॥ (१९) गाथा-२१९ परिग्रहरूप उपाधिको एकान्तिक
अंतरंग छेदत्व होनेसे उपाधि अंतरंग छेदवत्
त्याज्य है, यह उपदेश करते हैं । फायक्रियामाहिं जीवघात . होत कर्मबंध,
होहु वा न होहु यहां अनेकांत पच्छ है । पै परिग्रहसों धुवरूप कर्मबंध बँधै,
यह तो अबाधपच्छ निहचै विलच्छ है ॥ . जात अनुराग विना याको न गहन होत,
__ याहीसेती भंग होत संजमको कच्छ है । ताहीत प्रथम महामुनि सब त्याग संग,
पावै तब उभैविधि संजम जो स्वच्छ है ॥१०॥