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कवियर पन्दावन विरचित
तातें जैसे प्राछित बतावै गुरु तैसे करे,
फेरि तामें थित होत करत उदोत है ॥७७ ।। सोना अभिलापीको जितेक आभरन ताके,
सर्वही गहन जोग जाते सर्व सोना है । परजाय विना कहूं दरव रहत नाहि,
ताते दर्वगाहीको समस्त ही सलोना है ॥ तैसे मुनिपदवीके मूल अठाईस गुन,
मुनिपद धारै ताको सर्वभेद होना है । एको गुन घटै तबै मुनिपद भंग होय,
ऐसो जानि सर्वमाहिं सावधान होना है ॥७८॥ (१०) गाथा-२१० श्रमणके दीक्षादातावत् छेदोपस्थापक दूसरा भी होता है यह कथन ।
छप्पय । तिनको मुनिपद गहनविपैं, ने प्रथमाचारज । सो गुरुको है नाम, प्रवृज्यादायक आरज ॥ भरु जब संजम छेद, भंग होवै तामाहीं ।
जो फिर थापन करै, सो निरयापक कहवाहीं ॥ यों दोय मेद गुरुके तहां, दिच्छादायक एक ही । छेदोपस्थापनके सुगुरु, वाकी होहिं अनेक ही ॥७९॥
दोहा । दिच्छा गहने बाद जो, संजम होवै भंग । एकदेश वा सर्व ही, ऐसो होय प्रसंग ॥ ८० ॥
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