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प्रवचनसार
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ऐसो ज्ञान ज्ञेयको बन्यो है सनबंध तऊ, ' मेरो रूप न्यारो जैसें चंद्रमा फलकमें । अनादिसों और रूप भयो है कदापि नाहिं,
ज्ञायक सुभाव लिये राजत खलकमें ॥ ताको अब निहचे प्रमान करि वृन्दावन,
अंगीकार कियौ मेदज्ञानकी झलकमें । त्यागी परमाद परमोद धारी ध्यावत हों, जातै पर्म धर्म शर्म पाइये पलकमें ॥१३६॥
दोहा । मेरो रूप अनादितै, थो याही परकार । मोहि न सूझ्यो मोहवश, ज्यों मृग 'मृगमद धार ॥१३.७।। अब जिनप्रवचन दीपकरि, आप रूप लखि लीन ।। तजि आकुल भ्रम मोहमल, भये तासुमें लीन ॥१३८॥ अब वंदों शिवपंथ जो, शुद्धपयोग सरूप । इक अखंड वरतत त्रिविधि, अमल अचल चिद्रूप ॥१३९॥ भये जासु परसादतै, शुद्ध सिद्ध भगवान । 'सुमग सहित वन्दों तिन्हें, भावसहित धरि ध्यान ।।१४० ।
और जीव तिहि मगविपैं, जे वरतत उमगाय । भावभगतजुत प्रीतिसों, तिन्हें नमों सिरनाय ॥१४१।। कुन्दकुन्द श्रीगुरु भये, भवदधितरन जिहाज ।
प्रवचनसार प्रकाशके, सारे भविजन काज । १४२॥ १. कस्तूरी। २. जैन आगम। ३. पूर्ण किये ।