________________
प्रवचनसार
- [ १७१
(५३) गाथा-१९८ उन्हें परम सौख्यका ध्यान है।
दोहा । अतिइन्द्री उतकिष्ट सुख, सहज अनाकुलरूप ।। ताहीको एकाग्र निज, अनुभवते जिनम्प ॥१२८॥ अनइच्छक बाधा रहित, सदा एक रस धार । यही ध्यान तिनके कह्यौ, नय उपचार अधार ॥१२९॥ पुत्र कर्मकी निरजरा, नूतन बंधै नाहिं । यही ध्यानको फल लखौ, वृन्दावन मनमाहिं ॥१३०॥ (५४) गाथा-१९९ माक्षमार्ग शुद्धात्माकी उपलब्धि
लक्षणवाला है।
मनहरण । या प्रकार पूरवकथित शिवमारगमें,
सावधान होय जो विशुद्धता संभारी है । चरमशरीरी जिन तथा तीरथंकर,
जिनिंददेव सिद्ध होय वरी शिवनारी है ॥ तथा एक दोय भवमाहिं जे मुकत जाहिं,
ऐसे श्रमन शुद्ध भाव अधिकारी है । तिन्हैं तथा ताही शिवमारगको वृन्दावन, वार चार भली भांति वंदना हमारी है ॥१३१॥
दोहा । बहुत कथन कहँ लगु करों, जो शुद्धातम तत्त ।
ताहीमें 'परवर्त करि, भये जु तदगत-रत्त ॥१३२॥ १. तत्त्व । २. प्रवृत्ति । ३. तद्गतरक्त-लवलीन ।