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कविवर वृन्दावन विरचित
ऐसे सिद्धनिकों तथा, आतम अनुभवरूप ।
शुद्ध मोख-मगको नमों, दरवितभाव सरूप ॥१३३॥ (५५) गाथा-२०० स्वयं हो मोक्षमार्गरूप शुद्धात्म
प्रवृत्ति करते हैं।
__ मनहरण । तातें जैसे तीरथेश आदि निजरूप जानि,
शुद्ध सरधान ज्ञान आचरन कीना है । कुन्दकुन्द स्वामी कहैं ताही परकार हम,
ज्ञायक सुभावकरि आप आप चीना है । सर्व परवस्तुसों ममत्वबुद्धि त्यागकरि,
निर्ममत्व भावमें सु विसराम लीना है । सोई समरसी वीतराग साम्यभाव वृन्द,
मुकतको मारग प्रमानत प्रवीना है ॥१३४॥ मेरो यह ज्ञायक सुभाव जो विराजत है,
तासों और ज्ञेयनिसों ऐसो हेत झलकै । कैधों वे पदारथ उकीरे ज्ञान थंभमाहिं,
कैंधों ज्ञान पटवि. लिखे हैं अचलकै । कैधों ज्ञान कूपमें समानै हैं सकल ज्ञेय,
कैधों काहू कीलि राखे त्याग तन पलकै । कैधों ज्ञानसिंधुमाहिं डूवे धो लपटि रहे,
कंधों प्रतिबिंबत हैं सीसेके महलके ॥१३५॥
१. कांचके।