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प्रवचनसार
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आपने सरूपमें अचल परवस्तुकों न, अवलंब करै यात अनालंब ठानौ हौं ॥१०९॥
दोहा। ज्ञानरूप दरसनमई, अतिइन्द्री धुवः धार । महा अरथ पुनि अचलवर, अनालंब अविकार ॥११०॥ सात विशेषनि सहित इमि, लख्यौ आतमाराम । ताही शुद्ध सरूपमें, हम कीनों विसराम ॥१११॥ पंच विशेषनिको कथन, फरि माये बहु थान । मनालंब अरु महारथ, इनको · सुनो वखान ॥११२॥
मनहरण । कर्ममल नासिके प्रकाश होत ज्ञान जोत,
सो तो एकरूप ही अभेद, चिदानंद है । तासमें सभेद वृन्द ज्ञेय प्रतिबिंब सब,
तासकी सपेच्छ भेद अनंत सुछन्द है ।। पांचों जड़दके सरूपको दिखावै सोई,
याहीते महारथ कहावत अमंद है । परवस्तुको सुभाव कभी न अलंब करे,
तात अनालंय याकों भाषं जिनचंद है ॥११३॥ (४८) गाथा-१९३ निजात्माके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी
प्राप्त करने योग्य नहीं है।
दोहा। तन धन सुख दुख मित्र अरि, अधुव भने जिनभूप । धौव निजातम ताहि गहु, जो उपयोगसरूप ॥११४॥