Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 173
________________ १६४ ] कविवर वृन्दावन विरचित पुण्य-पापरूप परिनाम जो हैं आतमाके, रागादि सहित ताको आपु ही है करता । तिन परिनामनिकों आप ही गहन करे, आपु ही जतन करें ऐसी रीति धरता ॥ तातें इस कथनको कथंचित शुद्ध दरवारयीक, नय ऐसे भनी भर्महरता । पुग्गलीक दर्व कर्मको है करतार सो, __ अशुद्ध विवहारनयद्वारतें उचरता ॥१९॥ प्रश्न-छप्पय । रागादिक परिनाम बंध, निहचै तुम गाये । फेरि शुद्ध दरवारथीक नय, विषय बताये ॥ पुनि सो गहने जोग, कहत हौ हे मुनिराई । वह रागादि अशुद्ध, दरवको करत सदाई ॥ यह तो कथनी नहिं संभवत, क्यों अशुद्धको गाहिये । याको उत्तर अब देयके, संशय मैटो चाहिये ॥१०॥ उत्तर-दोहा। रागादिक परिनाम तौ, है अशुद्धतारूप । याहीकरि संसारमें, है अशुद्ध चिद्रूप ॥१०१॥ यामें तौ संदेह नहिं, है परंतु संकेत । यहाँ विविच्छामेदतें, कथन करी जिहि हेत ॥ १०२ ॥ छप्पय । शुद्ध दरवका कथन, एक दरवाश्रित जानो । और दरवका और मो(?), अशुद्धता सो(?) मानो ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254