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प्रवचनसार
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(३८) गाथा १८३ वैसा ही सम्पज्ञान और मिथ्या
ज्ञानरूप अज्ञान। जो जन या परकारकरी, निज औ परको नहिं जानत नीके । . आपसरूप चिदानंद वृन्द, तिसे न गहै मदमोह वीके । सो नित मैं तनरूप तथा, तन है हमरो इमि मानत ठीके । भूरि भवावलिमाहिं भमै, निहचै वह मोह महामद पीके ॥९१॥ है (३९) गाथा-१८४ आत्माका कर्म क्या है ?
मनहरण । . आतमा दरव निज चेतन सुपरिनाम,
ताहीको करत सदा ताहीमें रमत है । आपने सुभावहीको करता है निइचै सो,
निजाधीन भाव भूमिकाहीमें गमत है ॥ पुग्गलदरवमई जेते हैं प्रपंच संच,
देहादिक तिनको अकरता समत है । ऐसो भेद भेदज्ञान नैनतें विलोको वृन्द,
याही विना जीव भव भाँवरी भमत है ॥९२॥ (४०) गाथा-१८५ पुद्गल परिणाम आत्माका कर्म
क्यों नहीं?
द्रुमिला। यह जीव पदारथकी महिमा, जगमें निरखो भ्रमको हरिके । है मधि पुग्गलके परिवर्ततु है, सब कालवि निहचै करिके ॥
तब हू तिन पुग्गल कर्मनिको, न गहै न त न करै धरिके । है वह आपुहि आप सुभावहितै, प्रनवे सतसंगतिमें परिके ॥९३॥ हैं