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__ कविवर वृन्दावन विरचित
विषय कषायादिक तामें रतिरूप सो,
अशुभ राग सरवथा त्यागजोग तई है ॥८७|| (३६) गाथा-१८१ शुभाशुभ परिणामके रहित परके प्रति है
प्रचात्त नहीं होती ऐसा परिणाम शुद्ध होनेसे कर्म
क्षयरूप मोक्ष है। परवस्तुमाहिं जो पुनीत परिनाम होत,
ताको पुन्य नाम वृन्द जानो हुलसंत है । तैसे ही अशुभ परिनाम परवस्तुविष,
ताको नाम पाप संकलेशरूप तंत है ॥ जहां परवस्तुविर्षं दोऊ परिनाम नहिं,
केवल सुसत्ताहीमें शुद्ध वरतंत है ।। सोई परिनाम सब दुःखके विनाशनको, कारन है ऐसे जिन शासन भनत है -॥८८ ।
चौपाई। पर परनतित रहित विचच्छन । सकल दुःख खयकारन लच्छन । मोच्छवृच्छत्तरुवीज विलच्छन । शुद्धपयोग गर्दै शिवगच्छन ।।८९।। (३७) गाथा-१८२ स्वाश्रयकी प्रवृत्ति और पराश्रयकी निवृत्तिकी सिद्धिके लिये स्वपरका विभाग बतलाते हैं।
मतगयन्द । है थावर जीव निकायनिके, पृथिवी प्रमुखादिक भेद घने हैं। है औ सरासि निवासिनके, तनके कितनेक न भेद बने हैं । है सो सब पुग्गलदर्वमई, चिनमूरतिते सब मिन्न ठने हैं । है चेतन हू तिन देहनितें, निहचै करि भिन्न जिनिंद भने हैं ॥९०॥ है