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कविवर वृन्दावन विरचित
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तिनको मल्पी जीव देते जाने भलीभांत,
यह तो मवाघ सिद्ध प्रान्छ प्रनानसों ॥ जो न होत अल्प वन्त यह मान्मा तौ,
कैसे ताहि देखती औ जानन महानों । वैसे ताके वंचको विधान हू मुजानी बन्द, सनिल मिलाप ज्यों "शबद जुरे कानसों" |७.1
दोहा । देखन जाननकी शाति, जो न जीवनहँ होत । तब निहि विवि संसारमें, वचन होत उदोन ७१| मोह राग ल नावारि, देवत जानत जीव 1 . नाही मात्र विकारों, आयु हि बंधन सदीत्र ७२॥ राग चिकनाई नई, दोष रच्छता माय । बाहीके सुनिमित्ता, पुद्गलमान बघाय १७३!! आत्मके परदेश प्रति, दक्ति कर्म अनाद । तिनसों नूतन मननो, वंव परत निवाद । ७४ यह विवहारिक बंधविधि, निहत्रे व न सोय । जहूँ अशुद्ध उपयोग है, नोइ त्रिकंटक जोय !७
मनहरण । जैसे वाल्वालगन के सांचे नाटीनिके,
देति जानि तिन्हें अपनाये राग जोगनों । तिनके निकट कोऊ नार लोरै बेलनिनो.
तवे ते अधीर होय रौवें वो शोरों ! तहां अब भो तो विचार मेवज्ञानी वृन्द, __ ये बयल सोड़ी नमनाकी डोरमों ।
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