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कविवर वृन्दावन विरचित
(१८) गाथा-१६३ परमाणुओं मिलकर पिंडरूप पर्याय । अप्रदेशी अनू परदेशपरमान दर्व,
सो तो स्वयमेव शब्द-'परजरहत है । तामै चिकनाई वा रुखाई परिनाम बस,
सोई बंध जोग भाव तासमें कहत है ॥ ताहीसेती दोय आदि अनेक प्रदेशनिकी, .
दशाको बढ़ावत सुपावत महत है । ऐसे पुदगलको सुपिंडरूप खंध बँधे, यासों चिदानंदकंद जुदोई लहत है ॥३४॥
दोहा। अविभागी परमानु वह, शुद्ध दरव है सोय । वरनादिक गुन पंच तो, सदा धेरै ही होय ॥३५॥ एक वरन इक गंध इक, रस दो फासमझार । अंतर मेदनिमें धरे, श्रुति लखि लेहु विचार ॥३६॥ (१९) गाथा-१६४ परमाणुके स्निग्ध-रूक्षत्व कैसा ।
मनहरण । पुग्गलअनूमें चिकनाई वा रुखाई भाव,
एक अंश” लगाय भाषे मैदरास है। एकै एक बढ़त अनंत लौं विभेद बढ़े,
जातै परिनामकी शकति ताके पास है ॥ जैसे छेरी गाय भैंस ऊंटनीके दूध घृत,
तामें चिकनाई वृद्धि क्रमः प्रकास है । १. पर्याय-रहित । २. स्पर्शमें । ३. पुद्गलाणुमें ।