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प्रवचनसार
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तन मन 'वैन ये प्रगट पुदगल यातें, - मैं तो याको कारन हू बन्यौ नाहिं तब ही ॥ तथा करतार औ करावनहार नाहिं, ___ करताको अनुमोदक हूं नाहिं जब ही । ये अनादि पुग्गलकरमही" होते आये,
ऐसी वृन्द जानी- जिनवानी सुनी अब ही ॥३०॥ (१६) गाथा-१६१ तन-वचन-मनका भी पुद्गलस्व । तन मन वचन त्रिजोग है. पुदगलदरवसरूप । ऐसें दयानिधान वर, दरसाई जिनभूप ॥ ३१ ॥ सो वह पुदगल दरवके, अविभागी परमानु । तासु खंधको पिंड है, यो निहचै उर आनु ॥ ३२ ॥ (१७) गाथा-१६२ आत्माके परका तथा परके कर्तृत्वका
अभाव ।
मनहरण । मैं जो हो विशुद्ध चेतनत्वगुनधारी सो तो,
पुग्गल दरवरूप कभी नाहिं भासतो । तथा देह पुग्गलको पिंड है 'सुखंध बंध,
सोउ मैंने कीनों नाहिं निहचे प्रकासतो ॥ ये तो है अचेतन औ मूरतीक जड़ दर्व,
मेरो चिच्चमतकार जोत है चकासतो । तातें मैं शरीर नाहिं करता हूँ ताको नाहि,
मैं तो चिदानंद वृन्द अमूरत सासतो ॥३३॥ १. वचन । २. स्कंध-परमाणुप्रोंका समूह । ।