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फविवर वृन्दावन विरचित
(१४) गाथा-१५९ अशुद्धोपयोग (शुभ-अशुम) जो कि
परद्रव्य के संयोगके कारण हैं, उनके विनाशका अभ्यास बताते हैं।
मत्तगयन्द । मैं निज ज्ञानसरूप चिदातम, ताहि सुध्यावत हौं भ्रम टारी । भाव शुभाशुभ बंधके करन, तातै तिन्हैं तजि दीनों विचारी ॥ होय मधस्थ विराजत हों, परदर्व वि. ममता परिहारी । सो सुख क्यों मुखसों बरनौं, जो चखै सो लखै यह वात हमारी ॥२५॥
दोहा । . तातै यह उपदेश अव, सुनो भविक बुधिवान । ___ उदिम करि जिन वचन सुनि, ल्यो निजरूप पिछान ॥२६॥
ताहीको अनुभव करो, तजि प्रमाद उनमाद । देखो तो तिहि अनुभवत, कैसो उपजत स्वाद ॥२७॥ जाके स्वादत ही तुम्हें, मिले अतुल सुख पर्म । पुनि शिवपुरमें जाहुगे, परिहरि अरि वसु कर्म ॥२८॥ यही शुद्ध उपयोग है, जीवन-मोच्छसरूप ।
यही मोखमग धर्म यहि, यहि शुद्धचिद्रूप ॥२९॥ । (१५) गाथा-१६० शरीरादि परद्रव्यके प्रति भी मध्यस्थता ।
मनहरण । मैं जो हों शुद्ध चिनमूरत दरव सो,
त्रिकालमें त्रिजोगरूप भयो नाहि काही ।
१. उद्यम ।